राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक शताब्दी की गौरवशाली यात्रा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज परिवर्तन के क्षेत्र में पिछली सदी में एक महत्वपूर्ण एवं अभिनव प्रयोग है। जहां देश के अन्यान्य स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों ने देश की आजादी के लिए राजा और रंक, अमीर और गरीब सभी को आंदोलित एवं संगठित कर देश के कोने-कोने से अंग्रेजों को भगाकर आजाद होने की ललक जगा दी। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूजनीय डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए विश्व का एक अनोखा संगठन तैयार किया। साथ ही उनमें आजादी के बाद की समाज-संरचना और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए राष्ट्रवाद पर आधारित नये – नये प्रयोग करने का संस्कार भी डाला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्थापना काल से प्रारंभ होकर आज सौवें पड़ाव की ओर अग्रसर है यह ९९ वर्षों की यात्रा संघ के जीवन में बहुत ही उतार चढ़ाव की रही है, इस यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कुंदन की भांति निखरकर आज विश्व पटल पर श्रेष्ठ संस्कारों की, सभ्यता की, अध्यात्म की, संस्कृति के नए सोपान स्थापित कर रहा है यह भारत के लिए अत्यंत गौरव का विषय है की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा संगठन आज हम सबके बीच सक्रिय रूप से भारतीयता की उन्नति के लिए, विकसित भारत बनाने के लिए अहर्निश कार्य कर रहा है। अभी १५ मार्च २०२४ से १७ मार्च २०२४ तक अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा नागपुर में संपन्न हुई हम जानते हैं। प्रतिनिधि सभा में कार्य विस्तार के जो आंकड़े आए हैं वो सम्पूर्ण समाज में संघ की स्वीकार्यता को प्रगट करते हैं – ४५६०० स्थानों पर ७३११७ शाखाएं प्रतिदिन चल रही हैं, २७७१७ मिलन केन्द्र चल रहे हैं, १०५६७ मंडली चल रही है। संघ के माध्यम से सम्पूर्ण देश में १,२२,८९० से अधिक सेवा कार्य चल रहे हैं। २७ सितंबर १९२५ में विजयदशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना आद्य सरसंघचलक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में की उस समय की जो स्थितियां परिस्थितियों थी उससे संपूर्ण जनमानस परिचित है वह कालखंड भारत की गुलामी का कालखंड था संपूर्ण भारतवर्ष अपने स्वतंत्रता को पाने के लिए स्थान – स्थान पर संघर्ष कर रहा था उस काल में भारत को स्वतंत्र करने के उद्देश्य से एवं अपने भारत को विश्व गुरु के पद पर पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से संघ संस्थापक ने शक्ति के प्रतीक पर्व विजयदशमी के दिन संघ का प्रारंभ किया जब संघ शुरू हुआ तब आज जैसी स्थिति में है इसकी कल्पना शायद उस समय संघ संस्थापक में नहीं रही होगी लेकिन १०० वर्षों में संघ ने जो किया वह अद्वितीय रहा है संघ की यात्रा गौरवशाली यात्रा है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में समाज के अन्य सक्रिय लोगों को साथ लेकर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का जो प्रयास कर रहे हैं उसके बीज संघ के प्रारंभ के १५ वर्षों में ही पड़ गये थे। इस बात को दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा लिखित पुस्तक ‘संकेत रेखा’ में पढ़कर जाना जा सकता है। देश की आजादी के बाद जब संघ चलाने वाले शीर्षस्थ कार्यकर्ताओं में यह चर्चा होने लगी कि आजादी हासिल करने के उद्देश्य से संगठन की रचना हुई थी और अब चूंकि आजादी मिल गई है तो संघ के कार्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए? इस चर्चा का सूत्रपात गुरुजी के पश्चात बने सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने नागपुर से प्रकाशित एक अखबार में अपने लेख ‘संघ कार्य के अगले कदम’ लिखकर की थी। उस लेख के आधार पर संघ में चर्चा होती और कोई कार्ययोजना तैयार होती, उससे पहले ही यानी लेख के एक महीने बाद ३० जनवरी १९४८ को बापू की हत्या हो गयी। तत्कालीन सत्ताधीशों ने इस दुखद घड़ी का राजनैतिक शोषण किया और ४ फरवरी १९४८ को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया परिणामस्वरूप उस लेख की विषय-वस्तु पर चर्चा नहीं हो पाई। किन्तु लेख की भावना के अनुरूप उस प्रतिबंध काल में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के रूप में स्वयंसेवकों ने रचनात्मक और आन्दोलनात्मक गतिविधियां शुरू की और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद अस्तित्व में आया जो आज दुनिया का सबसे बड़ा विधार्थी संगठन है। प्रतिबंध हटने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ढांचे को दुरुस्त करना सबकी प्राथमिकता थी। गांधी हत्या को राजनैतिक औजार के रूप में सत्ताधीशों ने इस्तेमाल किया था और इस कारण संघ के कार्य के विस्तार में कठिनाई हो रही थी। स्वयंसेवकों को हर जगह सफाई देनी पड़ रही थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गांधीजी की हत्या में कोई हाथ नहीं था। लेकिन प्रतिबंध की अग्निपरीक्षा से संघ और तप कर निकला और कार्य विस्तार की कठिन चढ़ाई शुरू हुई। तथा स्वयंसेवक दैनिक शाखा बढ़ाने में जुट गए। इसी बीच देश के राजनीतिक वातावरण में जो हलचल चल रही थी, उसमें हिंदुत्वनिष्ठ राजनीतिक दल समय की आवश्यकता थी। उसको पूरा करने के लिए स्वर्गीय डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संघ के तत्कालीन सर संघचालक परम पूजनीय श्री गुरुजी से इस विषय में सलाह की। गुरुजी ने उनके प्रयास को बल प्रदान करते हुए उनकी मदद के लिए कुछ कार्यकर्ताओं को उनके साथ लगाया। परिणामस्वरूप अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीति से अलिप्त रहते हुए संघ शाखा के माध्यम से व्यक्ति निर्माण से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की दिशा में बढ़ने के लिए संकल्पबद्ध था। उस समय की राजनीतिक स्थिति को देखा जाए तो भारतीय जनसंघ ही एक ऐसा राजनैतिक दल था जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखता था। बाकी अन्य दल तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर निंदक एवं विरोधी थे। इसलिए संगठन के निर्णय या निर्देश से नहीं बल्कि तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों के कारण संघ के सामान्य स्वयंसेवको का रूझान जनसंघ की ओर रहा।
इसी काल खंड में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अतिरिक्त सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, मजदूर संघ, किसान संघ, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, शैक्षिक महासंघ,हिन्दुस्तान समाचार, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, पूर्व सैनिक परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम आदि संस्थाएं आकार लेती गईं। वर्तमान में ४० से अधिक राष्ट्रीय स्तर के संगठन कार्य कर रहे हैं जो अपने क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट प्रयास कर समाज को साकारात्मक दिशा में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं।
परम पूजनीय श्री गुरुजी ने विचार व्यक्त किया कि हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है, यह तर्क का नहीं, केवल बुद्धि का नहीं, बल्कि अखण्ड श्रद्धा का विषय है। इसके बारे में किसी भी प्रकार का संशय कार्यकर्ताओं के मन में नहीं होना चाहिए। अपने-अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार इस संदर्भ में भाषा व शैली में कुछ भिन्नता हो सकती है। मगर अविभाज्य श्रद्धा के विषय से हम अगर हटे तो हमारी स्थिति इतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः की हो जायेगी। जनसंघ की संगठनात्मक स्थिति के बारे में उन्होंने कहा, “एक ही तो व्यक्ति था जो असमय ही चला गया। उससे बहुत कुछ होना था।” उनका संकेत पंडित दीनदयाल उपाध्याय की तरफ था। उन्होंने आगे कहा था, “शेष तो कंगूरे के कलश हैं। फिर भी अगर सब साथ चलें तो उस व्यक्ति के अभाव की एक सीमा तक क्षतिपूर्ति हो सकती है।”
१९७४ में, तीसरे सरसंघचालक बालसाहेब देवरस ने वसंत व्ययाख्यानमाला में अपने उद्बोधन में घोषणा की, ‘अगर अस्पृश्यता गलत नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है।’ इसने संघ द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त करने तथा सामाजिक समरसता स्थापित करने के बड़े पैमाने पर प्रयासों की शुरूआत की। इसका परिणाम यह हुआ कि संघ ने समाज सेवा के क्षेत्र में व्यापक कार्य करने का निर्णय लिया। परिणाम यह है कि वर्तमान में संघ के स्वयंसेवक विभिन्न संगगठनों के बैनर तले देश भर में करीब दो लाख सेवा परियोजनाएं चला रहे हैं। १९८३ में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने श्री रामजन्मभूमि आंदोलन में कदम रखा। संघ से प्रेरित विश्व हिंदू परिषद ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया अंततः ५ अगस्त २०२० को अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत के साथ आंदोलन की परिणति हुई। इस आंदोलन ने राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में हिंदुत्व को स्थापित किया। पिछले ९९ वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगाया गया है – १९४८, १९७५ और १९९२ में १९४८ में, महात्मा गांधी की हत्या के बाद संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, १९७५ में इसे आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित कर दिया गया था और १९९२ में इसे बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद प्रतिबंधित कर दिया गया था। तीनों बार, कुछ ही समय में प्रतिबंध हटा लिया गया, और संघ पर लगाए गए झूठे आरोपों से मुक्त कर दिया गया। हर प्रतिबंध के बाद संघ ने पहले से अधिक मजबूती से वापसी की। १९४९ में प्रतिबंध हटने के बाद संघ ने अपने संविधान तैयार किया। १९७५- ७७ के दौरान, संघ ने लोकतंत्र को बहाल करने के लिए एक भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व किया और इसकी भूमिका को विश्व स्तर पर मान्यता मिली। संघ सामान्यत: आरोपों और विरोधों पर अन्य संगठनों की तरह प्रतिक्रिया नहीं देता। उसका चरित्र इन सबसे बिना प्रभावित रहते हुए शांतिपूर्वक अपना काम करने का है। संघ को निकट से देखने वाले जानते हैं कि जो बैठक जिस उद्देश्य से आयोजित है उसी पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सभी भारतवासियों से आग्रह करता है कि हम दूर से संघ के समर्थक नही अपितु सक्रिय कार्यकर्त्ता बनकर भारत माता को परम् वैभव पर पहुंचाने के लिए कंधे से कन्धा मिलाकर इस ईश्वरीय कार्य में अपना योगदान दें।
— बाल भास्कर मिश्र