गीत
बूढ़ा बरगद रुदन कर रहा ।
क्यों मुझसे आशीष मांगती हैं ललनाएं ?
जाने कब इनके वर मुझको काट गिराएं?
मानव मूरख काल स्वयं का बन बैठे हैं,
डर लगता हैं कही स्वयं को खा न जायें ।
मन ही मन अतिशय व्याकुल है,
शुभता के हित मनन कर रहा ।
बूढ़ा बरगद …………………………….
पहले जैसा अब रितुराज कहाँ आता है?
कहाॅं आम का उपवन ,सौरभ फैलाता है ?
कहाॅं नीम के फूल महकते हैं रातों को ?
कहाॅं मधूक धरा पर मोती बिखराता है?
कौन प्रश्न गंभीर अधिक है ?
बड़ी देर से चयन कर रहा ।
बूढ़ा बरगद………………………..
हे मानव! जीवन के हित कुछ पेड़ लगाओ!
तुम्हें सौंह है मत गमलों में मुझे उगाओ !
देखो वसुधा नित्य हो रही है, बंजर सी ,
कंकरीट के जंगल, मत हर जगह उगाओ !
जगा रहा है प्रलय कर्म से,
मूर्ख मनुज है शयन कर रहा ।
बूढ़ा बरगद…………………….
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी