माॅर्निंग टी
‘अजी, उठिए न। आज आपके हाथ की बनी चाय पीनी है। बहुत दिनों से आपके हाथ से बनी चाय नहीं पी है’ -रूपा ने कंबल के अंदर से विकास को हिलाते हुए कहा। ‘ओह!अरे यार! संडे है। सोने दो। तुम खुद बना लो’-विकास ने अधजगे अवस्था में जवाब दिया। ‘ओ माय डार्लिंग, प्लीज़’- रूपा ने प्यार से कहा। ‘ओह हो! तुम भी न। चलो बनाता हूं’- विकास ने बिस्तर से उठते हुए कहा।
फ़रवरी का महीना। गुलाबी सर्दी वाली सुबह। नोएडा के पैराडाइज सोसायटी में विकास का ‘प्रेम निवास’। शादी को दस बरस बीत चुके हैं।
बालकनी में सुबह की खिली-खिली धूप। ‘धूप कितनी अच्छी लग रही है न’ -चाय की चुस्की लेते हुए रूपा ने कहा। ‘क्या बात है? कुछ डिमांड तो नहीं? आज मुझ पर बड़ा प्यार आ रहा है। ऐसे तो इतने बरसों में कभी ढंग से मेरी तारीफ भी नहीं की’ -विकास ने कहा।
‘ओह हो! इतनी शिकायतें। तुम नहीं समझोगे। स्त्रियां खुलेआम पति का तारीफ़ नहीं कर सकती। लोग नज़र लगा देंगे। मैं दिखावा नहीं करती। इस माॅर्निंग टी को ही ले लो। यह महज चाय नहीं है, तुम्हारे साथ होने का, तुम्हारे प्यार का, केयरिंग होने का एहसास है। आज के भाग-दौड़ वाले समय तुम्हारे साथ माॅर्निंग टी एक अलग सुकून एवं आनंद देता है। यही छोटे-छोटे पल जिंदगी में रिश्तों को जीवंत बनाती है, उसके गरमाहट को बनाए रखती हैं -चाय की चुस्की लेते हुए रूपा ने जवाब दिया।
सूरज की रोशनी में रूपा की अलग छवि को विकास निहारे जा रहा था। मार्निंग टी की चुस्की और मिठास के साथ न जाने कितनी गलतफहमियां और करवाहटें घुलती जा रही थीं।
— मृत्युंजय कुमार मनोज