ग़ज़ल
वक्त के साँचे में ढलती जा रही है जिंदगी
रफ़्ता रफ़्ता यूँ निकलती जा रही है जिंदगी
चाहती तो हूँ बहुत के रोक लूँ इसको मगर
रेत की मानिंद फिसलती जा रही है जिंदगी
और ये कुछ भी नहीं मिट्टी का बस इक ढेर है
आज बनती कल पिघलती जा रही है जिंदगी
बारहा करके बहाना मौत का ये बेवफ़ा
ज़िस्म भी अपना बदलती जा रही है जिंदगी
बचपना जिंदा है शायद आज भी मुझमें कहीं
इसलिए पल पल मचलती जा रही है जिंदगी
बाप के काँधे पे जिम्मेदारियों का बोझ बन
उम्र के साए में पलती जा रही है जिंदगी
उम्र अब कच्ची नहीं के बहक जाएगी रमा
अपनी अना के साथ चलती जा रही है जिंदगी
— रमा प्रवीर वर्मा