कहानी – तुम सिर्फ मेरी हो ‘मां’
ललन बचपन से ही बड़े भावुक और सरल किस्म का इंसान था। क्षण भर में ही भावुकता उसके दिल में रक्त प्रवाह बनकर दौड़ जाती थी। लेकिन यह जरूर था कि वह बचपन से ही चार पैरों वाले जानवरों को ज्यादा करीब से निहारता रहता था। उनके बीच ही वह पला बढ़ा था फिर क्या हाथी, क्या घोड़ा, क्या कुत्ता , क्या कबूतर, गाय, बकरी, मुर्गी……सब उसके साथी और दादा चौधरी लाल जी के तो यही खिलौने हुआ करते थे। सूरज की लालिमा के साथ ही ललन के घर की एक किलोमीटर की बाउंड्री पूरी तरह से चहचहा उठती थी। जिधर भी नजर दौड़ाओ बकरियों का मिमियाना, मुर्गियों का झुंड, कुत्तों का एक-दूसरे पर भौंकना, हाथियों का दहाड़ना, गायों का रंभाना, पक्षियों का वह मधुर कलरव भरा संगीत का स्वर कर्ण को तार-तार कर देता था।
निशा की अंतिम कगार से ही चौधरी लाल जी उनकी सेवा में जुट जाते। जहां वह सभी पक्षियों को सातमेरावन दाना देते, हाथियों को हर दिन एक केले का पेड़ तो कुत्तों को भोजन, गायों को भूसे का सेवन कराते, वहीं घोड़े को चना गुड़ की पोटली देकर खुद भी घुड़सवार का आनंद उठाने के लिए निकल पड़ते। उनकी घुडसवारी देखते ही बनती थी। उन्हें देखने रास्ते में मानों नन्हे बच्चों का तो सैलाब सा उमड़ पड़ता था। वह भी हर दिन रास्ते से किसी बच्चे को अपने साथ या फिर अवकाश के दिनों में तो ललन बेटे को ही अपने साथ ले लेते। उन्हें भी भरपूर आनंद का एहसास दिलाते ।
भ्रमण से आकर भी वह पशुओं के साथ ही अपना अधिकांश समय बिताते। साफ-सफाई से लेकर दाना खिलाने, नहलाने सब एकमात्र स्वयं चौधरी लाल जी ही करते। श्रीमती जी के लाख कहने पर भी वह पशुओं की जिम्मेदारी किसी और को सौंपने को राजी ना होते। जिससे वह कभी-कभी व्यंग कर कह भी देती यदि सारा वक्त पशुओं के साथ ही बिताना था तो परिवार बसाने की जरूरत ही क्या थी ?? इतना ही नहीं, गांव के लोग तो यह भी कह देते थे कि इन्हें तो कोई पशु ही होना चाहिए था भगवान ने गलती से मनुष्य का रूप दे दिया।
चौधरी लाल जी एक किलोमीटर की बाउंड्री मानों पलक झपकाते ही नजर दौड़ा कर परख लेते थें। एक जगह खड़े होकर ही पड़ताल कर लेते थे कि कौनसे पशु ने चारा खा लिया है और कौन खेल रहा है। अब ललन भी दो पैरों वालों से ज्यादा चार पैरों वालों के साथ ही समय बिताने लगा। विद्यालय से बचे खाली समय में वह उनके साथ ही भागा- दौड़ी ,खेला -कूदी करता। कभी कबूतरों के साथ खेलते, कभी मुर्गियों को दौड़ाता, तो कभी कुत्ते को लेकर स्वयं ही दौड़ने निकल जाता। कभी अंडे की खोज में चप्पा- चप्पा मारता , तो कभी पिता के साथ गायों के स्तन का आनंद उठाता। वह भी उनसे घंटों बातें करता। ललन को मां अक्सर समझाने की कोशिश भी करती, लेकिन उसके कानों पर जूं तक न रेंगती।
देखते देखते पिता की इच्छा अनुसार ललन ने पशु चिकित्सा वेटरिनरी की पढ़ाई पूरी कर ली और पड़ोस के पशुओं की सरकारी संस्था में उसका दाखिला भी हो गया। वक्त के साथ अब दादा जी की तबीयत भी भारी रहने लगी, जिससे पशुओं की देखभाल के साथ परिवार बसाने की जिम्मेदारी भी उन्होंने उसे सौंप दी। उन्होंने साधारण परिवार की कन्या लीला देवी से उसका विवाह करा दिया।
अब भी ललन खाली समय मिलते ही घर में पशुओं के साथ ही बिताता , कभी मुर्गियों, कबूतरों को दाना देता, कभी गायों को पुचकारता तो कभी खुद कुत्ता लेकर दौड़ने निकल जाता। लेकिन फिर भी ललन परिवार की समस्याएं , पिता की अस्वस्थता मे कुछ उलझ सा गया। जिससे पशुओं की संख्याओं में काफी कमी आती गई, लेकिन हां, गौशाला में गायों और मुर्गियों में कभी कोई कमी नहीं आई। वह आज भी महीने में 50,000 रुपए का तो दूध बेच देता था।
शुरू में तो पत्नी लीला देवी अक्सर इन कार्यों का विरोध करती, मगर कोई दूसरी तरकीब ना देख वह भी उसके कार्यों में हाथ बटाने पर मजबूर होती गयी। ललन का पशुओं के साथ अपनत्व के व्यवहार को देख मुंह पर ताला जड़ लेती। चौधरी लाल जी की बढ़ती उम्र जिससे वो पशुओं के बीच हाजिरी तो लगाते मगर कुछ कर ना पाने में असमर्थ रहते देख। ललन की गैर मौजूदगी में पशुओं की जिम्मेदारी अब लीला देवी को भी उठानी पड़ती। अब तो घर पर एक नई मेहमान भी आ चुकी थी। अब लीला जब भी पशुओं की देखरेख करती, उन्हें दाना-चारा देने जाती तो बेटी माही भी उनके पीछे-पीछे भागने लगती। कभी यहां- वहां दौड़ती, छोटे बछड़े के साथ खेलती, कभी मां का आंचल पकड़े पीछा करती। घंटो समय बिताती। ऐसा प्रतीत होता जैसे पशुओं से प्यार उसे पुशतैनी ही मिला हो। बछड़ा भी दौड़ता, भागता, थोड़ा सा मधुरस का आनंद उठाता। यह देख माही बहुत खुश होती । तभी एक दिन माही ने उसके बड़े बछड़े को प्यार से पुचकारते हुए देख लिया। बड़ा बछड़ा भी मां के प्यार रस में डूब चुका था। माही दो पल बल्लू की तरफ देखती रही। मां हमारा बल्लू अपना बेटा को छोड़कर दूसरी गाय को क्यों प्यार कर रही है।
लीला देवी दो पल सोचती रहीं। आजकल के बच्चे….–‘अरे बेटा यह भी बल्लू का एक ही बेटा है ,इससे बड़ा!”
” लेकिन मां वो तो बड़ा हो गया है , बल्लू छोटे बच्चों को छोड़कर बड़े को क्यों दूध पिला रही है !”
” बेटा ! वह बड़ा तो हो गया है लेकिन उसे भी दुलार चाहिए। ” और बल्लू तो मां है! जानती हो, एक मां के सामने बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, वह बच्चे ही रहते हैं। ” मगर तुम्हें क्या समझाऊं, तुम तो अभी बहुत छोटी हो !
” बताओ ना मां!”
“अरे बेटा, अब मुझे ही देखो मैं इतनी बड़ी हो चुकी हूं लेकिन आज भी मैं अपनी मां के घर जाती हूं तो वापस आने की इच्छा नहीं होती। आज भी मैं तुम्हारी नानी की गोद में बैठती हूं , उनके हाथों से एक निवाला भोजन जरूर करती हूं। “
“लेकिन मैं तो किसी को अपनी मम्मी की गोद में बैठने नहीं दूंगी … आप तो सिर्फ मेरी मम्मी हो!
शब्दों की भावुकता देख, बेटा तुम्हारी नजर में मैं सिर्फ तुम्हारी मां हूं। लेकिन सही मायने में हमारे घर के सभी पारो, मुर्गा ,तोता , बकरी सभी की छोटी से छोटी जरूरत के लिए सबकी नजर मुझे मां कह कर ही पुकारती है ।
“नहीं ,आप सिर्फ मेरी मां हो”
” अच्छा चलो, तुम अभी नहीं समझोगी। बच्ची हो न, जब तुम मां बनोगी तब …
इतने में ललन फटाक से प्रवेश कर …”अरे कौन मां बन रहा है, हमारी माही….”
गोद में उठाकर ललन के चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान की लालिमा सी आ गई। माही पर हाथ फेरते लीला देवी भी मुस्कुरा दी….
— डोली शाह