गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मै सदा हँसती ही रहती हूँ,कि पागल हूंँ मैं।

राह अब भी तेरी तकती हूंँ, कि पागल हूंँ मैं।।

बोझ दुनिया का लिए फिरता है, मर्ज़ी तेरी।

धुन में अपनी बजा करती हूँ,कि पागल हूँ मैं।।

एक तू है कि किसी और में, मसरूफ़ हुआ।

एक मैं तुझको ही भजती हूँ, कि पागल हूंँ मै।।

इश्क़ में समझा खिलौना मुझे, और तोड़ दिया।

गुज़रे हालात से डरती हूँ,कि पागल हूँ मैं।।

ग़म में घुटती रहूँ ये बात, भी मंज़ूर नहीं,

मैं तो बस मस्ती में चलती हूँ,कि पागल हूंँ मैं।

क्यूँ करूँ उसकी जुगाली,जो बीती बातें हैं।

मैं तो बस आज में जीती हूँ, कि पागल हूंँ मैं।

तीर तलवार क्या,ख़ुश रहना ‘किरण’ काफ़ी है।

अपने दुश्मन से यूँ लड़ती हूँ,कि पागल हूंँ मैं।।

— प्रमिला ‘किरण’

प्रमिला 'किरण'

इटारसी, मध्य प्रदेश