राजनीति

जातीय संघर्ष : राष्ट्र के विकास का दहकता इस्पाती दस्तावेज

जन्म और मरण के बीच जगत में जो कुछ भी सत्य है वही भौतिक जीवन है। जीवन को जीने के अपने स्वतः परिचालित कुछ नियम है जो हमारे पूर्व जन्म और इस जीवन के कर्मो द्वारा संचालित है। पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम को टाल नहीं सकते किन्तु इस जीवन के कर्म पर हमारा पूर्ण अधिकार है। इस बात को हर कोई जानता है किन्तु मनुष्य अपनी जीवन सुविधा के लिए आदिकाल से अब तक स्वनिर्मित एक व्यवस्था का पालन भी करता आ रहा है और कालानुक्रमिक संशोधन भी।

‘संघर्ष तो प्रकृति का स्वर्णिम अंकुर है जिससे सृष्टि उत्पन्न हुई तथा यह प्रकृति का प्रारम्भिक मौलिक गुण भी है। यहीं गुण व्यक्तिगत भी है और सार्वभौमिक भी है। समान रूप से हर स्तर पर इसके व्यापक प्रभाव परिलक्षित होते है।

वर्गहीन,संघर्षहीन,जातीय संघर्षहीन समाज की कल्पना दार्शनिकों, विचारकों ने की है। यह एक अच्छा आदर्श भी है। किन्तु मैं मानता हूँ कि संघर्षहीन समाज नहीं होना चाहिए, न हो सकता और न कभी होगा।

संघर्षहीन,वर्गसंघर्षहीन समाज का कोई औचित्य नहीं है। जो देश- समाज इस संघर्ष से वंचित है वह कदापि जीवंत नहीं हो सकता। वह राष्ट्र संवेदनहीन और पिछड़ा है।

मेरा अभिप्राय ये नहीं है कि समाज जातिगत रूढ़ बंधन में बंधा रहे। ये जातिबंधन किसी समय कबीलों की पहचान रही है। और उस समय ये जाति आधारित समाज की पहचान का आविष्कार एक दहकता इस्पाती जीवंत दस्तावेज था। सांस्कृतिक विकास की की अमिट गाथा बन गई। वृहदाकार पाकर ये आविष्कार कठोर हो गया और मानवीय जीवन के इतिहास का कलंक बन गया। जातिगत धारणा जब रूढ़ हो गई तब पहचान के लिए उस समय नया आविष्कार हुआ। अब जाति से ऊपर वर्ग हो गया। जातियाँ वर्ग में समाहित हो गई। ये विभाजन की सबसे पहली शुरूआत थी। काम के आधार पर बनाये गये वर्ग जन्म के आधार पर मान लिए गए तब समाजवादी विचारकों का जन्म नहीं हुआ था। यह वर्गीय निर्धारण का आधार मनुष्य को बेड़ियों में जकड़ता दुर्दशा की ओर ले गया। तब स्वच्छ सामाजिक संघर्ष उत्पन्न हुआ। उससे पहले उत्पन्न सामाजिक संघर्ष सिर्फ व्यक्ति को अपने और कबीले के अस्तित्व के लिए लड़ना सीखा रहा था। मानवीय संवेदनशीलता ने व्यक्ति को समाज के लिए लड़ना सिखाया।

मैं कार्ल मार्क्स के विचारों से सहमत होकर भी मतैक्य नहीं रखता। मार्क्सवादी विचारों से संघर्ष करके क्रांति कर लाया परिवर्तन अराजकता,गृहयुद्ध और तानाशाही प्रवृत्ति को जन्म देता है। किंतु संघर्ष की शिक्षा देकर जातिगत रूढ़ बंधन तोड़कर समाज को विकसित करता है और लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त कर उसे बनाये भी रखता है।

मैं जिस संघर्ष की पैरवी कर रहा हूँ वो इस प्रकार वर्णित है – प्राचीन समय में जब मनुष्य जब आदिम अवस्था में था तब वे सब एक समान थे उनके समूह में जो कुशल व सक्षम था उसका नेतृत्व उन्होंने स्वीकार किया। यह परम्परा चल पड़ी। जनसंख्या बढ़ी और कबीलों का आपसी सम्पर्क बढ़ा तब उनको पहचान की आवश्यकता पड़ी तब किसी सामाजिक श्रृंखला की कड़ी की शुरुआत हुई जिनसे उनके कबीलों की पहचान बनी। कबीलें विस्तृत हुए और आपस में संयुक्त हुए तब यह पहचान किसी काम की नहीं रहीं। पहचान संकट देखकर जाति जैसी कोई नई धारणा का जन्म हुआ। जिसमें बहुत से कबीलें के लोग मिलकर रहने लगे अपनी पहचान भी बनाये रखी। यहीं से सभ्य समाज की तथा समाजवाद की नींव पड़ी। इसी से विकसित होकर यह सभ्यता आज के युग प्रविष्ट हुई।

हम जातीय सामाजिक जीवन संघर्ष पर विचार करे तो परिणाम हमारे सामने आयेंगे। मेरे अनुसार ये निष्कर्ष ऐसे है –

जाति के बाद वर्ग उत्पन्न हुआ। वर्ग कर्म(जीवनवृत्ति) के आधार पर बना बाद में जन्म आधारित हुआ तो सामाजिक दुर्दशा होने से वर्ग की जातियाँ संघर्ष करने लगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चारों में स्वयं में तथा आपस में संघर्ष हुआ। परिवार स्वरूप वर्गीय व्यवस्था बिखर गई। वंशीय,कुलीय परम्परा शासन में आई। ब्राह्मण वर्ग में आन्तरिक बदलाव आया पर बिखरा नहीं। जब भारत में केन्द्रीय शक्ति नहीं रहीं और विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं आक्रमण किया और शासन स्थापित कर रहीं बस गये तब जातीय संघर्ष के साथ साम्प्रदायिक संघर्ष भी शुरू हो गया। जातीय सर्वोच्चता को धक्का लगा। जब इनमें सामंजस्य होने लगा तब अंग्रेज आये और नये जातीय संघर्ष, साम्प्रदायिक,सांस्कृतिक, धार्मिक संघर्ष की शुरुआत हुई। मुसलमानों के आने से धार्मिक संघर्ष भी हुआ। परन्तु जातीय जीवन इतना प्रभावित नहीं हुआ। अंग्रेजी व्यवस्था में जातीय समीकरण मिट्टी में मिले और नये जातीय बंधन जातीय उत्थान के साथ शुरू हुए। जातीय उत्थान के लिए संगठन बने। इसी समय का अवसर लाभ लेकर लोग पढ़ने लगे, जागरूक हुए। नई सामाजिक चेतना फैली। व्यक्ति को जाति के निर्रथक बंधन समझ में आने लगे किन्तु हजारों वर्षों से चली आ रही परम्परा को मिटना इतना आसान नहीं। लोग जाति के बंधन को स्वीकार कर जातीय कल्याण की भावना जुड़ गये। इसी समय आरक्षण की व्यवस्था की शुरूआत हुई।

आज की आरक्षण व्यवस्था पुरातन वर्ग विभाजन व्यवस्था के समान है। सामान्य वर्ग,अन्य पिछड़ा वर्ग,अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र वर्ग का ही प्रछन्न रूप है। जो जातियाँ प्राचीन समय में पिछड़ी समझी जाती थी वो संघर्ष करके प्रगतिशील हो गई, जो प्रगतिशील समझी जाती थी उनमें ठहराव आया जीवन में विकार आया और निम्न जीवन दशा की और अग्रसर हुई परिणाम स्वरुप वो जाति पिछड़ गई। आज जो जाति पिछड़ी समझी जाती है। कुछ दशक बाद वो स्वर्ण जाति होगी क्योंकि वर्तमान आरक्षण की व्यवस्था ने इनके जातीय संघर्ष को वज्रास्त्र दे दिया। इन पिछड़ी जातियों के जीवन संघर्ष से जीवन स्तर में सुधार है,उच्च जाति के समान इनका जीवन बन गया। नौकरी लगने से इनकी जातीय संस्कृति, आचार-विचार,जीवन आदर्श, सामूहिक भागीदारी, शासकीय व राजनीतिक भागीदारी ने इस संघर्ष को सकारात्मक दिशा दी है।

आज के जातीय बंधन और जातीय संघर्ष कुछ दशक बाद भारतीय जातीय व्यवस्था में स्वर्णिम इतिहास लिखेंगे। पिछड़ी जातियाँ स्वर्णिम जाति होगी। और स्वर्णिम जातियाँ टूटेगी उनमें बिखराव होगा। इस बिखराव की जिम्मेदार स्थिति में शराब आदि नशीले पदार्थ महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे।

जातीय व्युत्क्रम होता रहेगा, यह चक्र नये स्वरूप में होगा। यह प्रक्रिया नित्य चलेगी। नये वर्ग,जाति उत्पन्न होगी, विकास के चक्र में ढलकर कई जाति पिछड़ी होगी तो कई प्रगतिशील।

प्रगतिशील जातियाँ पिछड़ेगी और पिछड़ी जातियाँ प्रगतिशील होगी। बिना इस जातीय संघर्ष के समाज का विकास नहीं होगा। व्यक्ति और समाज गर्त में चले जायेंगे। जातीय संघर्ष राष्ट्र विकास में बाधक तब बनता है जब वो खूनी संघर्ष में तब्दील हो हो जाये। हमारे यहाँ जातीय संघर्ष मानवीय संवेदना से सिक्त है।

हमारा जातीय संघर्ष कभी राष्ट्र के विकास में कभी बाधक नहीं होगा। हमारा जातीय संघर्ष व्यक्ति के कर्म से बंधा है न कि हिंसा से। व्यक्तिगत उत्थान राष्ट्र विकास की कड़ी है।

— ज्ञानीचोर

ज्ञानीचोर

शोधार्थी व कवि साहित्यकार मु.पो. रघुनाथगढ़, जिला सीकर,राजस्थान मो.9001321438 ईमेल- binwalrajeshkumar@gmail.com