पर्यावरण

जलवायु संकट से जूझती महिलाएं

हाल में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए एक आंतरिक शोध से पता चला है कि बिहार, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना में महिलाएं और बच्चे विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन संबंधी आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन संबंधी खतरों के संपर्क में आने वाले बच्चों में बौनापन, कम वजन और जल्दी गर्भधारण की संभावना अधिक देखी जा रही है। हमारे देश में महिलाओं और बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लेकर बहुत कम शोध हुए हैं, साथ ही नीति निर्माण में अक्सर इनकी अनदेखी की जाती है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए अध्ययन के मुताबिक भारत के 70 फीसद जिलों में बाढ़, सूखा और चक्रवात का खतरा बढ़ गया है। 183 जिले चक्रवात और बाढ़ जैसी आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं, वहीं 349 जिले सूखे की मार झेल रहे हैं। इन जिलों में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण, किशोरावस्था में गर्भ धारण और घरेलू हिंसा संकेतक भी बहुत गंभीर हैं।

देश के करीब 51 फीसद बच्चे गरीबी और जलवायु संकट की दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत के करीब 35.2 करोड़ बच्चे वर्ष में एक बार प्राकृतिक आपदा का सामना जरूर करते हैं। ऐसे में हम भले विकसित बनने का दम भर लें, लेकिन कहीं न कहीं यह हकीकत से काफी परे है और वर्तमान के साथ ही भारत का भविष्य भी चिंतित करने वाला है। हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में पहले स्थान पर धाक जमाएं या न जमाएं, लेकिन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सार्थक कदम की सख्त जरूरत है। मगर हमारे देश में राजनेताओं के लिए पर्यावरण संकट कभी मुद्दा नहीं रहा और शायद यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकट विकराल हो चला है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान तेजी से बढ़ रहा है। अब तो हालात इस हद तक बदतर हो चले हैं कि मां की कोख में पल रहा बच्चा तक सुरक्षित नहीं है। आज समूचे विश्व में बढ़ते तापमान के चलते समयपूर्व बच्चों के जन्म का खतरा कई गुना बढ़ गया है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि तापमान के बढ़ने से न केवल नवजात शिशुओं, बल्कि भ्रूण में पल रहे बच्चे तक के प्राण संकट में हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण हवा की गुणवत्ता खराब हो रही है। बदलता मौसम संक्रामक रोगों के संचरण, पानी की गुणवत्ता और खाद्य सुरक्षा में कमी का कारण बन रहा है। वैसे तो जलवायु परिवर्तन सभी को प्रभावित करता है, लेकिन जैविक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारणों से पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करता है। बढ़ते तापमान के कारण गर्भवती स्त्रियों के लिए गंभीर जोखिम का कारण बन रहा है। समय से पहले प्रसव, गर्भ के समय उच्च रक्तचाप और ‘प्री-एक्लेमप्सिया’ का खतरा काफी बढ़ रहा है। गर्भवती महिलाओं का अधिक गर्मी के संपर्क में आने से गर्भपात और समय पूर्व प्रसव का खतरा कई गुना बढ़ गया है। अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ के एक अध्ययन की मानें, तो गर्भावस्था के पहले सात हफ्तों के दौरान अत्यधिक गर्मी के संपर्क में आने वाली महिलाओं में जल्दी प्रसव होने की संभावना ग्यारह फीसद तक बढ़ जाती है।

. जलवायु परिवर्तन के चलते बीमारियों का प्रसार बढ़ता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए संकट पैदा करता है। भारत में गरीब समुदाय की महिलाएं स्वास्थ्य से जुड़े जोखिमों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि वे ऐसे वातावरण में रहने को मजबूर हैं, जो स्वास्थ्य और साफ-सफाई की दृष्टि से काफी प्रदूषित है। साथ ही, ऐसी महिलाओं को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं भी मयस्सर नहीं हो पाती हैं। बढ़ती बीमारियां महिलाओं के जीवन पर सीधे असर डालती हैं। अगर स्वास्थ्य खराब है, तो दिक्कत होना स्वाभाविक है, लेकिन अगर परिवार का कोई अन्य सदस्य भी बीमार हो जाए तो इससे घर की महिलाओं की दिनचर्या सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। इस तरह महिलाएं बीमारी के चक्र में फंसी रहती हैं।

भारत में 1901 से 2018 के बीच औसत तापमान में 0.7 डिग्री की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इससे देश भर में लू के दिन तेजी से बढ़ गए। इसे ‘साइलेंट किलर’ का नाम दिया गया है। आज भी हमारे देश की करीब 67 फीसद आबादी ऐसे इलाकों में रहती है, जहां वायु गुणवत्ता राष्ट्रीय मानक 40 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से ज्यादा है। इसके चलते भारतीयों की औसत आयु 5.3 वर्ष तक कम हो रही है। इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है, क्योंकि महिलाएं घर के अंदर भी सुरक्षित नहीं हैं। घर की रसोई से निकलने वाला धुआं भी महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के उत्तरी मैदानी इलाकों में बौनापन बढ़ रहा है, जबकि उत्तरी महाराष्ट्र और दक्षिण मध्यप्रदेश कम वजन वाले बच्चों के लिए चिह्नित किए गए हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते बच्चों में बौनापन होने की संभावना छह फीसद अधिक है, वजन कम होने की संभावना 24 फीसद अधिक है। न्यूनतम आहार विविधता में 35 फीसद कमी का अनुभव होता है, और अगर वे पांच वर्ष से कम उम्र के हैं और सूखे के संपर्क में हैं, तो मृत्यु की संभावना 12 फीसद बढ़ जाती है। इस अध्ययन में सूखे, बाढ़ और चक्रवात वाले क्षेत्रों में महिलाओं और युवा लड़कियों पर प्रभाव के संदर्भ में प्रमुख जगहों की पहचान की गई है। उत्तरी बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से दक्षिण पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के कुछ हिस्से, पूर्वी महाराष्ट्र, उत्तरी मध्यप्रदेश और दक्षिणी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से ज्यादा प्रभावित हैं। ऐसे क्षेत्रों में सूखे की स्थितियों के चलते कम वजन वाली महिलाओं में 35 फीसद, बाल विवाह में 37 फीसद, किशोर गर्भावस्था 17 फीसद और घरेलू हिंसा की संभावना 50 फीसद तक बढ़ जाती है।

जलवायु परिवर्तन के चलते देशभर में भीषण गर्मी और लू विकराल रूप ले लिया है। भारत लू चलने का एक मूल कारण ग्लोबल वार्मिंग है। जीवाश्म ईंधन जलाने, वनों की कटाई और औद्योगिक गतिविधियों के कारण पृथ्वी के औसत तापमान में दीर्घकालिक वृद्धि हो रही है। अभी बीते दिनों उत्तराखंड के जंगलों की आग सबने देखी। भीषण गर्मी के प्रकोप के चलते दुनिया भर में हर वर्ष करीब 1.53 लाख लोग मौत के आगोश में समा जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि 20 फीसद मौतें अकेले भारत में होती हैं, जो सबसे ज्यादा है। गर्मी के बढ़ते प्रकोप के कारण मौतों को जायज ठहराना सही नहीं है। सरकार को प्रत्येक राज्य और शहर में लू के प्रभावों से निपटने के लिए कार्ययोजना बनानी होगी, ताकि ऐसी असामयिक मौत को टाला जा सके। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से महिलाओं और बच्चों को बचाने के लिए एक दीर्घकालिक नीति की आवश्यकता है।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट