ग़ज़ल
क्या ये दस्तूर है बस दोस्त या प्यारे जाएं,
उनकी महफ़िल में कभी हम भी पुकारे जाएं।
और नखरे सहे कैसे ये बता दे तू ही,
तेरे क़दमों पे ही हम रोज़ तो वारे जाएँ।
हर क़दम सेंध लगाने के हैं ये नज़्ज़ारे,
अपना घर छोड़ कहाँ किसके सहारे जाएँ।
क्या कि पर्दा जो गिरेगा तो क़यामत होगी,
बज़्म से उठ के जो ये लोग हैं सारे जाएँ।
बीत जितने भी गये छोड़ तू उनका रोना,
अब ये कुछ दिन ही चलो साथ गुज़ारे जाएँ।
पाठ जो हम भी मुहब्बत के कहीं पढ़ लेते,
फिर न नफ़रत के चहुँ ओर शरारे जाएँ।
उनसे उम्मीद भला कैसी करूँ आज “किरण
जो भंवर में ही मुझे छोड़ किनारे जाऍं।
— इंदु मिश्रा किरण