सामाजिक

रिश्तों की दरकती बुनियाद

परिवार को समाज की नींव का पत्थर कहा जाता है। पर अब कुछ समाजशास्त्रियों ने पारिवारिक जीवन और परिवार के महत्त्व को लेकर सवालिया निशान लगाए हैं। परिवार में जहां एक तरफ सदस्यों को प्रतिबद्धता के मूल्य सिखाए जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में प्रविष्ट करा कर व्यक्तिवादिता के मूल्यों से परिचित कराया जाता है, ताकि वे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र और स्वायत्तशासी बन सकें। परिवार में कुछ और परिवर्तन प्रौद्योगिकीय विकास और अन्य विकास प्रक्रियाओं के कारण उभरने लगे हैं। उदारवादी दौर में गतिशीलता बढ़ने से अनेक बार परिवार करिअर में बाधक नजर आता है, क्योंकि संबंधों में उदारवाद उभरा है। संतानोत्पत्ति को स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने में बाधक माना जाने लगा है। परिवार में निजता का दायरा भी बदल गया है। अब निजता में हम केवल उन्हें शामिल करते हैं, जिन्हें हम चाहते हैं और जिन्हें हम परिवार में नहीं चाहते हैं उनके साथ तनावपूर्ण संबंध होते हैं। यानी पति या पत्नी के माता- -पिता और भाई बहन भी इस निजता के दायरे में शामिल नहीं होते।

तेजी से उभरते भौतिकतावाद ने परंपरागत परिवार संरचना के सामने अनेक संकट उत्पन्न कर दिए हैं। तलाक दर में वृद्धि, विवाह के पूर्व सहजीवन, एकल अभिभावक परिवार और एकल व्यक्ति गृहस्थी वे प्रवृत्तियां हैं, जो परंपरागत परिवारों के सम्मुख अनेक सवाल पैदा करती हैं। समाज वैज्ञानिकों का मत है कि यह परिवर्तन आधुनिक समाजों में व्यक्तिवाद के बढ़ते प्रभाव को बताते हैं। यह व्यक्तिवादिता परंपरागत परिवार को अस्थिर बना देती है। कुछ विचारकों का यह भी मानना है कि समाज में हो रहे परिवर्तनों ने अस्थिरता और असुरक्षा को व्यवस्था का हिस्सा बना दिया है, जिसकी अभिव्यक्ति परिवार में अस्थिरता के रूप में होती है। पूर्व के समाजों में परिवार विस्तृत नातेदारी का एक हिस्सा था, जबकि आधुनिक समाज में परिवार नातेदारों और संबद्ध समुदाय से कमोबेश कट से गए, जिसके फलस्वरूप भावनात्मक दबाव परिवार का एक आवश्यक, पर नकारात्मक अवयव बनकर उभरा है।

हाल ही में देश के विभिन्न हिस्सों में घटित कुछ घटनाओं के आधार पर इन विभिन्न पक्षों को समझा जा सकता है। महाराष्ट्र के नागपुर में एक महिला ने अपनी तीन साल की बेटी की हत्या कर दी। पति-पत्नी में किसी बात पर झगड़ा हुआ था, इस बीच उनकी बच्ची रोने लगी, तो गुस्से में पत्नी ने बच्ची को एक पेड़ के नीचे ले जाकर उसका गला घोंट दिया। इसी तरह बंगलुरु की एक स्टार्टअप कंपनी की सीईओ ने गोवा के एक होटल में अपने चार साल के बेटे की हत्या कर दी थी। पति से तलाक के बाद वह नहीं चाहती थी कि उसका पति बेटे से मिले। एक और घटना राजस्थान के बारां जिले की है, जिसमें बेटे ने संपत्ति विवाद को लेकर अपने बुजुर्ग माता-पिता की धारदार हथियार से हत्या कर दी। उत्तर प्रदेश के बड़ौत में एक बेटे ने संपत्ति से बेदखल किए जाने के बाद गुस्से में अपने पिता और दो सगी बहनों को मौत के घाट उतार दिया।

इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि भोगवादी संस्कृति के प्रसार ने लोगों को इतना व्यक्तिवादी और स्वार्थ केंद्रित बना दिया है कि अपने छोटे से लाभ के लिए जीवनसाथी, अपने बच्चों या माता-पिता की हत्या करने तक से उन्हें कोई गुरेज नहीं है। किसी की हत्या करना और खासकर किसी अपने की हत्या करना मानो एक खेल सा हो गया है। और ऐसा तभी संभव है, जब रिश्तों में भावनाएं, प्यार, लगाव समाप्त हो जाएं। या यों कहें कि आजकल के संबंधों में अपनत्व और प्रेम का स्थान पैसे ने ले लिया है। इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि आधे रिश्ते तो लोग इसीलिए निभा रहे हैं कि उनसे कभी न कभी काम पड़ सकता है।

कहा जाता था कि दुनिया में भाई- ई-बहन का रिश्ता सबसे निकट का और सबसे ज्यादा प्यार भरा होता है, लेकिन अब यह रिश्ता भी संपत्ति और उपहारों की भेंट चढ़ गया है। जिस दिन बहन ने पिता की संपत्ति में से अपना हिस्सा मांगा उसी दिन से वह सबसे बड़ी शत्रु दिखाई देने लगती है। बहन का घर आना भी खलने लगता है, जबकि शादी से पहले यही बहन उसकी सबसे बड़ी दोस्त और हमदर्द हुआ करती थी ।

यह कैसा विकास है, जहां मशीनें ‘स्मार्ट’ बनने लगी हैं और इंसान अपनी ‘स्मार्टनेस’ खोते जा रहे हैं। अपना अधिकांश समय ‘स्मार्ट गजेट्स’ के साथ बिताने के कारण लोगों में अपने परिवार और मित्रों के साथ संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो रही है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी रिश्ते या संबंध में संवाद होना महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना क्रांति के इस दौर में ‘स्मार्ट फोन’ ने रिश्तों की गर्माहट को ही खत्म कर दिया है। पहले हर रिश्ते हर दोस्त में अलग भावनात्मक लगाव हुआ करता था और उनकी अभिव्यक्ति भी भिन्न-भिन्न होती थी, लेकिन ‘स्मार्ट फोन’ के जमाने में एक ही संदेश हर किसी को भेज दिया जाता है। जब तक किसी से काम न पड़े, तब तक उससे संपर्क भी करने की जरूरत अनुभव नहीं की जाती। आज लोगों के जीवन में धन-संपत्ति इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि अपने ही खून के रिश्तों का कत्ल करने से भी वे नहीं चूकते ।

विवाह संस्था में विश्वास की समाप्ति, परिवारों में विघटन, भौतिक वस्तुओं को अधिक से अधिक पाने की लालसा, स्वयं को श्रेष्ठ और अन्यों को हीन मानने की प्रवृत्ति ने लोगों को अवसाद और निराशा के गर्त में धकेल दिया है। इसके अलावा जबसे हर चीज का बाजारीकरण हो गया है, तबसे रिश्तों का महत्त्व और भी कमजोर हुआ है। आधुनिक विकसित तकनीक के माध्यम से बच्चे पैदा हो जाना, उनका पालन- पोषण करने के लिए अनेक सार्वजनिक संस्थानों की मौजूदगी, जिससे मां का स्थान ‘स्मार्ट मशीन’ लेने लगी है। घर और दफ्तर के हर काम के लिए रोबोट के इस्तेमाल ने रिश्तों को बाजार की वस्तु बना दिया है। ऐसे में जब मानव जीवन के अस्तित्व की निरंतरता ही खतरे में हो, तो रिश्तों की समाप्ति का संकट हैरानी की बात नहीं।

जबसे इंसान ने उपभोक्तावाद और बाजारवाद की संस्कृति को जीवन का अहम हिस्सा बनाया है, तबसे मानव समाज अनेक तरह के जोखिमों से घिर गया है। जबसे लोगों ने परिवार के बड़े-बुजगों का स्थान गूगल और सोशल मीडिया को देना शुरू किया है, तबसे वह दिग्भ्रमित हो गया है। किसी ने सच ही कहा है कि जब से लोग बुजुर्गों की इज्जत कम करने लगे। हैं तबसे दामन में अपने दुआएं कम और दवाएं ज्यादा भरने लगे हैं। मानव समाज के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि इस विषय पर गंभीर विमर्श किया और हर संभव कोशिश की जाए, ताकि रिश्तों के समाज को मशीनी समाज में बदलने से रोका जा सके।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट