सामाजिक

सीखना बनाम सिखाना

दुनिया जानती और मानती है कि पढ़ने- “लिखने, सीखने और सिखाने की कोई उम्र नहीं होती । जबसे सोशल मीडिया ने इंसानी दिमाग पर कब्जा किया है, हर विषय पर सूचनाओं के अंबार लगे हैं। यह साबित हो रहा है कि कुछ भी सीखने की उम्र तो नहीं होती, समय भी नहीं होता। सुबह से शाम तक, चौबीसों घंटे सीखते रहा जा सकता है। दुनिया भर के लोग और खासकर हमारे देशवासी सामाजिक मंच पर ज्यादा जमा हैं। ये लोग हर समय एक-दूसरे को उपदेश दे रहे होते हैं, यानी सिखा रहे होते हैं। उन्हें सुबह शुभदिन का संदेश भेजा जाए, तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन अपने हाथों से शुभदिन लिख कर यानी मोबाइल के की बोर्ड पर टाइप नहीं करते, बल्कि कहीं से भेजे गए उपदेश को सिर्फ अग्रेषित कर देते हैं, जिनमें कोई न कोई सीख होती है। यह बात दीगर है कि वह सीख आज के माहौल में ऐसी होती है मानो महाभारत के समय में रामायण की सीख पर चलने के लिए आग्रह किया गया हो । सुबह जल्दी उठें या देर से, दूसरों को सिखाना, बताना और समझाना शुरू हो जाता है कि सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठें, उठकर क्या-क्या करें। इस बारे में सैकड़ों लोग सिखा रहे हैं कि नाश्ते में क्या खाएं, दोपहर को क्या और रात का भोजन और भजन कितने बजे करें। आपकी पसंद, सेहत और आर्थिक हालात, सिखाने वालों को पता नहीं होते। उनका नैतिक कर्तव्य तो सुबह से रात तक क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, इस बारे सिखाना है। खाने के साथ- साथ पोशाक पहनने के बारे में कई पाठ हैं। किस दिन कौन – सा रंग पहनें, किस राशि के लोग कौन से वस्त्र धारण करें, कौन से नक्षत्र में पैदा होने वालों को कौन से रंग के फल और सब्जियां खानी चाहिए।

आशंका है कि शायद आने वाले वक्त में यह बताया जा सकता है कि किस राशि के व्यक्ति को सोमवार को किस आकार के कालर की टीशर्ट या कमीज पहननी चाहिए। मंगलवार को बिना कालर की लाल कमीज पहननी चाहिए या नहीं। ऐसे लोग भी मिल सकते हैं कि जो बताएं कि रविवार को घर पर खाना नहीं चाहिए । इसी तरह अलग-अलग दिन के लिए अलग रंग के कपड़े पहनना निर्धारित किया जाएगा और बताया जाएगा कि उसे कोई खास कपड़ा पहनना शुभ है या नहीं। पसंद पर इस तरह की धारणाएं और बाजार की मांग या कारोबार हावी रहेंगे। यह बात दीगर है कि बदलते फैशन पर फिल्मी शैली का कब्जा है। कपड़ों के आकार-प्रकार या डिजाइन के मामले में अशालीनता रोजाना नए पहाड़ पर चढ़ना सिखा रही है। किसी की पसंद दूसरों की नापसंद होती है। मसला सुविधा और चुनाव का है, जिस पर बंदिश संभव नहीं है और न ही उचित है।

आसपास सिखाने वालों की कतार लगी है। अब नई और हैरान करने वाली चीजें पकाने वाले दर्जनों लोग सामाजिक मंच पर सक्रिय हैं। उनके बारे में बताने वाले दिन-रात जुटे हुए हैं। यूट्यूब के वीडियो में खाना पकाना, सिखाना और कमाना, प्रतियोगिता में लिपटा व्यवसाय है। रसोई चलाने वाले लाखों लोग इनसे सीख रहे हैं। इतना ज्यादा सिखाया जाने लगा है, लगता है सुनने वाले तमाम लोग बुद्ध हैं। किसी को कुछ पता नहीं है । सिखाने वाले मानते नहीं होंगे कि सभी अपने तरीके से खाना, पीना, पहनना चाहते हैं, उन्हें बस सिखाना है, इसलिए उनकी बातें, लहजा और भाव भी उपदेशक की होती है । वे मान कर चलते हैं कि वे सिखा रहे हैं और बाकी सब लोग सीख रहे हैं ।

इससे इतर एक स्थिति यह है कि अधिकांश लोग इस सच को आत्मसात कर चुके हैं कि जिंदगी एक बार मिली है। इसे अपने अंदाज में जीना, मजा लेना जरूरी है। सवाल है कि ऐसे में सिखा रहे लोगों को सुनने वाले लोग सुनने के बावजूद कितना सीखते होंगे ? कुछ समय पहले एक व्यक्ति ने सिखाया कि सफाई करने से पहले जरूरत के मुताबिक सूची बनाकर रख लें। यह बताया गया कि कमरा खाली कर सफाई करें। सफाई का पूरा फार्मूला बता दिया गया। जिंदगी तकनीक के शिकंजे में फंसती जा रही है। सुझाया गया कि थकान से बचने के लिए एक दिन में एक ही कमरा साफ करें। पुराने पालिथिन, बोतलें, कपड़े और प्लास्टिक पात्र संभालकर न रखने, बल्कि किसी को देने या बेचने के बारे में सुझाया गया। बाजार में ने दबाव बना कर खूब सामान खरीदना सिखा दिया है। जिंदगी में स्वच्छता, पर्यावरण प्रेम, ईमानदारी और अनुशासन बहुत हो गया, अब तो बस सिखाया जा रहा है कि टीशर्ट, कार्डिगन, पैंट या हूडी कैसे तह करें। इसे आसान बनाकर फोटो और वीडियो सहित बताया जा रहा है। घरेलू सफाई के लिए छोटे से छोटे उपाय बताए जा रहे हैं। यानी कोई भी काम हो तो व्यक्ति अपना दिमाग खर्च न करे, बस यूट्यूब या कोई अन्य मंच खोल ले और सब कुछ निर्देशित तरीके से सीख लें।

पहले भी तो संतान होती थी। कितना सहज और सरल था सब कुछ | इतने विकास के बाद भी यह सीखने में कम आता है कि लड़का लड़की समान होते हैं। यह समझाया जा रहा है कि लड़का चाहिए तो क्या, कैसे करें, क्योंकि हमारे समझदार और अति विकसित होते जा रहे समाज की मानसिकता में लड़के की चाहत कम नहीं होती। अब स्कूल-कालेज की पढ़ाई से सीखने का दौर गया, अब तो हर विषय पर वीडियो बनाकर सिखाया जा रहा है। वाट्सएप की दुनिया में अध्यापक बढ़ते जा रहे हैं। सिखाना ज्यादा हो रहा है और सीखना कम । इन सिखाने वालों के लिए अब यह सीखने का वक्त आ गया है कि किसी भी मामले में उपयुक्त, स्तरीय सलाह कैसे और कितनी दी जाती है। मेहनती और तार्किक आधार पर सीखने वालों को भी जागने की जरूरत है।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट

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