मिलन
रात कितनी भी लंबी हो,दिन का निकलना तय है।
वक्त ठहरता नही कभी,वक्त का चलना तय है।
लाख सजाये रखिये,लबो पे तबस्सुम के फूल,
कभी न कभी इन आँसुओं का भी निकलना तय है।
जी लो यारों कि फिर आये न आये शबाब के मेले,
दिले बेदार का एक बार तो फिसलना तय है।
वो कैद है,अपने ही मकबरे में,कैसे उसे पाये,
गर्मी ए जजबात हो,हर पत्थर का पिघलना तय है।
कौन रोकेगा दिल में मचलते इस तूफान को,
जब कि हर नदी का सागर से मिलना तय है।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”