सागर तट पर बैठा मेरा मन
सागर तट पर बैठा
मेरा मन
दूर दूर तक फैले सागर को
देख रहा था
क्षितिज पर ढलते
सूरज की आभा का
रंग सिंदूरी हो गया
सागर तट पर फैली
तलछट चमक उठी
पानी और रेत ने भी
स्वर्ण वेश धारण कर लिया
ऐसा नजारा देखकर
मरे मन ने यह सोचा
काश समय यही ठहर जाए
लेकिन समय नहीं ठहरता
कभी किसी के लिए
कुछ ही देर में स्वर्णिम आभा
विलुप्त हो गई धीरे-धीरे
सागर तट को अंधेरे ने घेर लिया
पानी से स्वर्ण सी आभा मिट गई
जैसे कभी थी ही नहीं
कुछ देर स्तब्ध सा निहारता रहा
लहरें धीरे उठ रही थी
आसमां में चांद निकल आया
फिर वही पानी चांदी सा चमक उठा
रेत पर चाँदनी बिखर गई
वहीं रेत अब चांदी सी चमक रही थी
नौकाएं सागर तट पर लौट आई
लेकिन मैं और मेरा मन सागर
तट से उठकर जाने को तैयार नहीं था
— अर्विना गहलोत