सामाजिक

व्यक्तित्व का आईना

अगर हम गौर करें कि किसी की भाव- भंगिमा जहां हमें आकर्षित करती है, वहीं यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण आयाम है जो किसी को आसमान की ऊंचाई तक ले जा सकता है तो आसमान पर बैठे हुए किसी को धरती पर पटक भी सकता है। यह किसी की भाव-भंगिमा ही है जो हम किसी को पसंद-नापसंद करने लगते हैं। किसी भी देश की अवाम किसी साधारण व्यक्ति को भी असीम प्यार देती है तो किसी को मायावी दुनिया से नीचे उतार देती है । भाव-भंगिमा किसी को खास और आकर्षक या लोकप्रिय बना देती है और किसी को राजा से रंक । गौर करने की बात है कि यह अद्भुत है। और मूल रूप से नैसर्गिक । मगर यह भी सच है कि इसे धीरे- धीरे साध कर कोई साधारण व्यक्ति असाधारण भी बन सकता है । ऐसा हम अपने आसपास देखते हैं। अगर हम इस विषय पर गौर करें तो हमारे सामने अनेक व्यक्तित्व उभर आते हैं, जिनकी भाव-भंगिमा के कारण हम उन्हें पसंद करते हैं, चाहते हैं, प्यार करते हैं । हम इसी भाव-भंगिमा के कारण कितने ही लोगों को नापसंद भी करते हैं ।

अगर कोई हमें पसंद है तो इसका एक कारण व्यक्तित्व में समाई हुई अदृश्य व्यक्तिगत भंगिमा भी है। कोई किसी को कुछ नहीं देता, कोई किसी से कुछ नहीं लेता। इसके बावजूद व्यक्तित्व एक सूत्र में बांध कर रखता है और किसी को नायक बना देता है तो किसी को शून्यवत । अगर हम बात करें असाधारण व्यक्तित्व की तो बहुतेरे आम लोग जो पहले किसी ग्रंथि के चलते नापसंद किए जाते थे, धीरे-धीरे केंद्र में आ जाते हैं। दरअसल, नायक के रूप में हमारे सितारों की कुछ बातें सकारात्मक हैं। जैसे आम आदमी से सीधा संवाद करने का तौर- तरीका, बहुत लोक लुभावन है । पूर्ववर्ती ऐतिहासिक अनेक नायकों में यह एक बड़ी खामी थी, मगर हम लकीर के फकीर बने हुए थे । । सचमुच के नायक, जननायक देश को एक नवीन शैली दे जाते हैं, जिस पर लोग वर्षों तक चलते रहते है । हमारे आसपास कई व्यक्तित्व एक नई शैली में आते हैं और हम उनके मुरीद बन जाते हैं। मानो एक स्थान खाली था, जिसे उन्होंने भर दिया है। लोगों में अवसाद, गुस्सा और झुंझलाहट, जिसे नायक एक झटके में तोड़ देते हैं और अलग-अलग संदेश देकर नया रास्ता दिखा देते हैं । बेलौस भाव से कहा जाए तो कुछ लोगों को नायक, जननायक के रूप में किसी की भाव-भंगिमा पर एतराज हो सकता है । सब शैली पर निर्भर करता है। फिल्मों में भी अक्सर ऐसे पात्र दिखाए जाते हैं जो आमतौर पर खलनायक की भूमिका अदा करते रहे और आगे चलकर नायक के रूप में प्रतिस्थापित हो गए।

दरअसल, पारंपरिक छवि के मुताबिक नायक का चेहरा साफ होना चाहिए, उसके चेहरे पर दाढ़ी नहीं होनी चाहिए । मगर अब यह मिथक टूट चुका है। ऐसा ही हाल हमारे अनेक सितारों का है। आमतौर पर सिनेमाई खलनायक एक अजीबोगरीब वेशभूषा में आया करते हैं और जनता उन्हें नायक से पिटता देख कर तालियां बजाती आई है। इस सब के पीछे ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह भाव-भंगिमा का ही कमाल है जो काम कर जाता है । कोई हमें बहुत ज्यादा पसंद आता है कोई बिल्कुल भी पसंद नहीं आता ।

एक प्रश्न यह भी है कि अगर कोई नायक दाढ़ी रखता है तो क्या वह नायक से खलनायक बन जाता है या फिर उसकी भंगिमा और भी ज्यादा प्रभावशाली हो जाती है । दाढ़ी अब भंगिमा का एक गुरुतर हिस्सा हो गई है, वहीं जननायकों से इतर आज का युवा दाढ़ी रख कर अपने व्यक्तित्व को एक सान दे रहा है। जब कभी नायकों के इर्द-गिर्द भीड़ देखी जाती है तो यह लोगों का सितारों के प्रति आकर्षण महसूस होता है। आम आदमी एक ऐसी शख्सियत को सिर – माथे चढ़ा सकता है। आज यह माना जाता है कि दाढ़ी किसी के व्यक्तित्व को विस्तार और धार देती है। शायद यह बीते समय की बात है जब भारतीय सिनेमा में सितारा माने जाने वाले और नायक छवि वाले कलाकार आमतौर पर साफ चेहरा ही रखते थे और जनता उन्हें सिर आंखों पर बिठाती रही। समय के साथ सब कुछ बदलता है। व्यक्तित्व और भाव-भंगिमा का गूढ़ अर्थ भी । शायद बहुतेरी हस्तियां फिल्में नहीं देखतीं । अगर देखी होती तो कभी भी अपना जीवन दर्शन और शैली आज जैसी नहीं रखते । सवाल यह भी है कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों की दिलचस्पी बदल रही है !

माना जाता है कि पहले के नायकों का शालीन व्यक्तित्व हुआ करता था । एक नायक भारतीय आत्मा ही प्रतीत होते थे । लगता था भारत बोल रहा है । एक नायक के स्वर सुन कर लगता था मानो देश की संस्कृति बोल रही है और एक अन्य नायक सभ्यता के ध्रुवतारे जान पड़ते थे। इसी तरह एक नायक की हंसी कमल दल सदृश्य करोड़ों आंखों के आगे आज भी तिर रही है। मगर कुछ एक सितारे जब से सार्वजनिक पटल पर अवतरित हुए हैं, उन्हें देखकर लगता है कि कौन इनकी सुनेगा, कौन वोट देगा इनको, कौन पसंद करेगा इसको ! मगर हम जैसा सोचते हैं, उससे अलग भी बहुत कुछ होता है ।

दरअसल, जहां भी हम खड़े हो जाते हैं, वही लोगों का हुजूम लग जाता है और हम जैसा चाहते हैं वैसा ही होने लगता है। यह सब अनुभूति कर लगता है कि ये कभी हमारे शहर – कस्बे आ जाएं तो क्या भीड़ जुटेगी… लोग सुनने के लिए दौड़ पड़ेंगे ! क्या लोग सिर्फ इसलिए नहीं जाएंगे कि इनकी भंगिमा में बड़ा बदलाव हुआ है और चेहरे के भाव भी नकारात्मक पात्रों सरीखे हो गए हैं ?

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट