गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ख़्वाब के सब्ज़ बाग़ से पैदल,
यानि हम हैं दिमाग़ से पैदल।
आँधियों ने कहा है अब के बार,
जंग होगी चराग़ से पैदल।
काश! ख़ानाबदोश जान सकें,
मंज़िले हैं सुराग़ से पैदल।
शर्त अबके लगाई चलने की,
इक कबूतर ने ज़ाग़ से पैदल।
मस करेंगे लबों को अपने हम,
ताव खाते अयाग़ से पैदल।
ज़ेह्न तक आना जाना पड़ता है,
इस तख़य्युल के दाग़ से पैदल।
अपनी दुनिया है अक़्ल वाली ‘शिखा’,
और हम हैं दिमाग़ से पैदल ।
(ज़ाग़- एक पक्षी. अयाग़- शराब का प्याला)
— दीपशिखा

दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर प्रज्ञापुरम संचार कॉलोनी छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश)

Leave a Reply