स्वास्थ्य

घटता शारीरिक श्रम, बढ़ती व्याधियां

किसी देश में सेहत और बीमारी का संबंध सिर्फ इलाज की सहूलियतों और आबादी की तुलना में उपलब्ध अस्पतालों और डाक्टरों की संख्या से हो, जरूरी नहीं। लोगों को कई रोग इसलिए भी घेरते हैं, क्योंकि उनकी दिनचर्या सेहत से जुड़े कायदों के मुताबिक नहीं होती और लोग ऐसी दिनचर्या अपनाते हैं, जिससे उनके बीमार पड़ने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे कई अध्ययन और सर्वेक्षण हुए हैं, जो बताते हैं कि हमारे देश देश में साधन-संपन्नता बढ़ने के साथ लोग अपनी दिनचर्या और स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा लापरवाह हुए हैं। ऐसा ही एक अध्ययन हाल में ‘द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ’ पत्रिका में प्रकाशित किया है। इसमें दावा किया गया है कि भारतीय शारीरिक सक्रियता के मामले में दूसरे कई देशों के नागरिकों से काफी पीछे हैं।
2019 में दुनिया के 197 देशों में सन 2000 से 2022 के मध्य कराए गए इस अध्ययन का उद्देश्य उद्देश्य विभिन्न देशों के वयस्क नागरिकों की दिनचर्या में शारीरिक सक्रियता की हिस्सेदारी और स्तर को नापना था। अध्ययन में 197 में से 163 देशों से मिले 507 सर्वेक्षणों का आकलन किया गया, जो दुनिया की कुल आबादी के 93 फीसद हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से 167 सर्वेक्षण 2010 से पहले के, 268 सर्वेक्षण 2010 से 9 के मध्य के और 72 सर्वेक्षण 2020 और उसके बाद के हैं। रपट कहा गया है कि वैसे तो पूरी दुनिया में आम वयस्कों की शारीरिक सक्रियता में कमी आई है, लेकिन इसमें उच्च आय वाले एशिया प्रशां क्षेत्र के देशों के आंकड़े परेशान करने वाले हैं। भारत ऐसे देशों सूची में दूसरे स्थान पर है, जहां के वयस्कों में आलस्य यानी सुस्ती बढ़ने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। रपट के मुताबिक आज से करीब पच्चीस वर्ष पहले भारत के वयस्कों का बाईस फीसद हिस्सा ऐसा था, जिसे शारीरिक सक्रियता के मामले में सुस्त माना जाता था। मगर 2010 में यह बढ़कर 34 और 2022 में लगभग 50 फीसद हो गया। कह सकते हैं कि कोविड महामारी के बाद वाले दौर में भारत के आधे वयस्कों की शारीरिक सक्रियता तकरीबन ठप हो चली है। 2030 तक इसके 60 फीसद तक पहुंचने का अनुमान है।
ताजा आंकड़े हमारे देश में 42 फीसद पुरुषों की शारीरिक निष्क्रियता दर्शाते हैं, तो स्त्रियों के मामले यह 57 फीसद बताया गया है। ऐसा संभवतः इसलिए है क्योंकि घरेलू कामकाज में स्त्रियों की भूमिका लगातार सिकुड़ रही है। यहां शारीरिक सक्रियता से आशय तेज चलने, दौड़-धूप वाले काम करने और ऊर्जा जलाने वाले व्यायाम है। हालांकि वैश्विक स्तर पर वयस्कों का निष्क्रियता संबंधी आंकड़ा वर्ष 2010 में 26.4 था, जो अब बढ़कर 31.3 फीसद हो गया है। कह सकते हैं कि इस निष्क्रियता में एक बड़ी भूमिका कोविड महामारी के दौर की हो सकती है। कोविड महामारी के दौरान सारे कामकाज इंटरनेट के जरिए घर बैठे कराने का चलन स्थापित हुआ, जो बाद परिपाटी में बदल गया। इससे लोगों का घर से बाहर निकलना कम हो गया। यहां तक कि ‘वर्क फ्राम होम’ यानी ‘घर से काम की संस्कृति और विकसित हो जाने से दफ्तर जाने की अनिवार्यता में भी भारी कटौती हो गई है। इससे भी वयस्कों की शारीरिक निष्क्रियता बढ़ी है।
शारीरिक सक्रियता में कमी को लेकर इसलिए चिंता जताई जा रही है कि व्यायाम, दौड़-धूप वाला कोई काम न करने, पैदल न चलने का असर यह होता है कि शरीर पर चर्बी बढ़ने लगती है और कई अंग भारी वसा और निष्क्रिय जीवनशैली के असर से पैदा बोझ के तले दबते चले जाते हैं। इन दशाओं में मनुष्य का पाचनतंत्र कमजोर या बीमार हो जाता है। भोजन से मिली ऊर्जा खर्च न हो पाने की दशा में शरीर पर बसा और अतिरिक्त मांस के रूप में जमा हो जाती है। इससे मोटापा, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और पाचन तंत्र की कई समस्याएं बढ़ जाती हैं। इन बीमारियों को जीवनशैली संबंधी बीमारियों के रूप में पहचाना जाता है, जो दुनिया के लिए एक बड़े स्वास्थ्य संकट की तरह सामने आ रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 में अपने एक वृहद अध्ययन में बताया था कि भारत में 61 फीसद गैर-संक्रामक मौतों के पीछे लोगों की निष्क्रिय दिनचर्या है दुनिया के 19 लाख लोगों की दैनिक शारीरिक सक्रियता का अध्ययन करके पेश की गई इस रपट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंदाजा लगाया था कि इस वक्त दुनिया में करीब 140 करोड़ लोगों की शारीरिक सक्रियता काफी कम है, लेकिन उस वक्त इस रपट में बताया गया था कि भारत के 24.7 फीसद पुरुषों और 43.3 फीसद महिलाओं को अपने हाथ-पांव हिलाने में ज्यादा यकीन नहीं है। यह आंकड़ा अब बढ़ चुका है। मगर पड़ोसी देश चीन ने ‘हेल्दी चाइना 2030’ अभियान चलाया है। इसी तरह आस्ट्रेलिया ने 2030 तक अपने 15 फीसद नागरिकों को व्यायाम में सक्रिय बनाने का लक्ष्य रखा है। ब्रिटेन में 2030 तक पांच लाख नए लोगों को व्यायाम से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है, जबकि अमेरिका में एक हजार शहरों को ‘फ्री फिटनेस’ से जोड़ने का अभियान चलाया गया है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सुस्ती हमारी पूरी जीवनशैली और कार्य संस्कृति में समाई ई हुई है। और इसलिए यह एक चेतावनी है। इसलिए ऐसे अध्ययनों की गंभीरता को समझते हुए भारतीयों को अपनी दिनचर्या में बदलाव को लेकर तुरंत सतर्क हो जाने की जरूरत है। इस चेतावनी का सबसे अहम पहलू शारीरिक परिश्रम से जुड़ा है, जिसकी भारतीय जीवन में जबर्दस्त अनदेखी हो रही है। इसमें महिलाओं और नहीं, बच्चों की बदलती जीवनशैली के भी संकेत निहित हैं।
कारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और अब लोग छोटे- मोटे कामों में भी कारों का इस्तेमाल करने लगे हैं। यही नहीं, ई-कामर्स की बदौलत अब तो बाजार खुद लोगों के घरों में आ पहुंचा है। ऐसे में अधिक से अधिक कसरत आंखों और हाथ की उंगलियों की ही होती। है अन्यथा लोग हाथ-पांव हिलाए बिना टीवी के सामने जमे रहते हैं। । कहीं कोई चलने-फिरने का दबाव नहीं, जरूरत नहीं। यह सही है कि चिकित्सा विज्ञान की बदौलत इंसान की औसत में इजाफा हो है, लेकिन लोग ऐसी बीमारियों से ग्रस्त रहने लगे हैं, जिन्हें जीवन-शैली सग्रस्त की बीमारियां कहा जाता | है। ‘लैंसेट’ ‘ में 2017 में प्रकाशित अध्ययन ‘ग्लोबल बर्डन आफ डिजीज’ ‘ में कहा गया था कि अमीर देशों के लोग यह समझने लगे हैं कि सेहत कितनी जरूरी है, इसलिए वे शारीरिक श्रम को महत्त्व देने लगे हैं, लेकिन भारत जैसे देशों में यह बात समझी नहीं जा रही। लिहाजा, गरीब और विकासशील देशों में अमीर मुल्कों की तुलना में लोग ज्यादा दिन बीमार रहते हैं।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट