लघुकथा -लगाव
“वाह क्या खुशबू आ रही है, क्या बन रहा है भाभी जी?” अंदर घुसते ही सोहन ने लंबी सांस लेते हुए कहा, मानो सांसों से ही सारा स्वाद ले लेगा।
“दोपहर के खाने की तैयारी हो रही है देवर जी।” भाभी ने आंखें मटका कर कहा।
“ओहो, क्या बात है, आज तो दावत दी जा रही है। कोई आ रहा है क्या?” सोहन ने देखा तो बोला, “पनीर की सब्जी, दाल, चावल, रायता, पूड़ी, सूजी का हलवा, सब कुछ बना है आज तो।”
फिर चारों तरफ निगाहें घुमाते हुए कहा, “कुछ तो विशेष बात है आज?”
“तुम्हारे भैया का मन था आज यह सब कुछ बनवाने का। कह रहे थे- ‘और दिन तो सादा खाना ही चलता है, कम से कम एक-दो दिन तो यह सब कुछ बना लो। मां-बाबूजी, छोटा, तुम और बच्चे सभी खुश हो जाएंगे।’ तो मैंने बना लिया…।” भाभी ने मुस्कुराकर कहा।
“ऐसा क्या हो गया जो इतना दिल खोल रहे हैं? कोई लॉटरी-वॉटरी लग गई दिखती है?” सोहन समझ नहीं पा रहा था।
“लॉटरी-वॉटरी कुछ नहीं। तुम तो अभी से भुलक्कड़ होते जा रहे हो”, भाभी ने मजाक करते हुए कहा, “आज पहली तारीख है। तुम्हारे भैया को तनख्वाह मिली है। इस बार ओवरटाइम के कुछ रुपए अतिरिक्त मिले हैं, बस इसलिए…।”
“ओ तेरी की भूला, सचमुच इस पढ़ाई ने तो संसार ही भुला रखा है मुझे। फिर यह वार और तिथि तो क्या ही याद रहेंगे।” सोहन माथे पर हाथ मारते हुए बोला।
“वैसे हम जैसे गरीब लोगों के लिए तो यही एक दिन जश्न मनाने का होता है, बाकी दिन तो…।” भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा।
“सच कह रही हो भाभी जी, हमारी रसोई तो चंद्रमा के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की तरह है।” सोहन ने कहा तो भाभी बोली, “वह कैसे देवर जी?”
“जब-जब पैसे मिलते हैं, तब-तब पानी में दाल बढ़ जाती है, और जैसे-जैसे पैसे खत्म होते हैं, वैसे-वैसे दाल में पानी बढ़ता जाता है।” सोहन फ़ीकी-सी हंसी हँसता हुआ बोला।
“वैसे इसका भी अपना एक अलग मजा है देवर जी, रोज-रोज तो पकवान भी अच्छे नहीं लगते। बस जैसे हैं उसी में मस्त रहना चाहिए। पैसे से गरीब ही सही, दिल से तो नहीं, कम से कम एक दूसरे से लगाव तो है।”
“चिंता न करो भाभी जी, जैसे ही पढ़ाई पूरी करके मैं काम पर लगूंगा, पैसे कमाऊँगा, घर की सारी गरीबी दूर कर दूंगा…।” सोहन भावुक होकर बोला।
“देवर जी, गरीबी चाहे कम हो या न हो, पर एक-दूसरे से लगाव कम नहीं होना चाहिए…”, भाभी हंस दी, “चलो सबको बुला लो, मैं खाना लगाती हूँ…।”
— विजय कुमार