स्वास्थ्य

महर्षि चरक के निरोगी रहने के उपाय :-

चरक एक महृषि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। 300-200 ई. पूर्व लगभगआयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है। इनका रचा हुआ ग्रंथ ‘चरक संहिता’ आज भी वैद्यक का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। निरोगी रहने के लिए महर्षि चरक ने बताया था कि “मित भुक्” अर्थात् भूख से कम खाना, “हित भुक्” अर्थात् सात्विक खाना और “ ऋत् भुक्” अर्थात् मौसम के अनुसार भोजन या फलाहार करे

जो व्यक्ति शरीर को लगने वाला आहार ले, भूख से थोड़ा कम खाए और मौसम के अनुसार भोजन या फलाहार करे वही स्वस्थ रह सकता है।

चरक ने अन्न को सबसे श्रेष्ठ आहार- “अन्नं वृत्तिकारणं श्रेष्ठम, क्षीरं जीवनीयांम , माँसं ब्रहणीयाँनंम “ (चरक संहिता-सूत्र स्थान-अध्याय 25-यज्जपुरुषीय अध्याय-श्लोक 40) माना है।

आयुर्वेद अनुसार भोजन के तीन प्रकार- प्राचीनकाल में वैद्यों ने आहार को मुख्य रूप से तीन प्रकारों में बाँटा था-

(1) सात्विक भोजन – यह ताजा, रसयुक्त, हल्की चिकनाईयुक्त और पौष्टिक होना चाहिए। इसमें अन्न, दूध, मक्खन, घी, मट्ठा, दही, हरी-पत्तेदार सब्जियाँ, फल-मेवा आदि शामिल हैं। भोजन में ये पदार्थ शामिल होने पर विभिन्न रोग एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से काफी बचाव रहता है।

(2) राजसी भोजन – इसमें सभी प्रकार के पकवान, व्यंजन, मिठाइयाँ, अधिक मिर्च-मसालेदार वस्तुएँ, नाश्ते में शामिल आधुनिक सभी पदार्थ, शक्तिवर्धक दवाएँ, चाय, कॉफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, मदिरा एवं व्यसन की सभी वस्तुएँ शामिल हैं। हालाँकि इससे पूरी तरह बचना तो किसी के लिए भी संभव नहीं, किंतु इनका जितना कम से कम प्रयोग किया जाए, उतना ही लाभदायक है।

(3) तामसी भोजन – इसमें प्रमुख मांसाहार माना जाता है, लेकिन “बासी एवं विषम आहार भी इसमें शामिल हैं। तामसी भोजन व्यक्ति को क्रोधी एवं आलसी बनाता है, साथ ही कई प्रकार से तन और मन दोनों के लिए प्रतिकूल होता है।

चरक सहिंता के अनुसार भोजन करने के दस अनमोल नियम:

उष्ण आहार लें – गर्म भोजन से जठराग्नि तेज होती है, भोजन शीघ्र पच जाता है।

स्निग्ध आहार लें – स्निग्ध भोजन शरीर का पोषण, इन्द्रियों को दृढ़ और बलवान बनाता है।

मात्रा पूर्वक आहार लें – पाचन शक्ति के अनुकूल उचित मात्रा में भोजन स्वास्थ्यवर्धक होता है।

पचने पर आहार लें – पहले खाया पचने के बाद भूख लगने पर ही दूसरा भोजन करें।

अविरूद्ध वीर्य वाले आहार लें– परस्पर विरूद्धवीर्य (गुण व शक्ति) का भोजन रोग उत्पन्न करता है।

अनुकूल स्थान में आहार लें – मन के अनुकूल स्थान में मन के प्रिय पदार्थो का सेवन करें।

जल्दी- जल्दी आहार न लें – जल्दी भोजन करने से लावा रस ठीक से न मिलने के कारण भोजन के पाचन में विलम्ब होता है।

बहुत धीरे- धीरे आहार न लें – धीरे- धीरे, रूक रूक कर भोजन करने से तृप्ति नहीं होती, आहार ठंडा तथा पाक विषम हो जाता है।

एकाग्रचित्त हो आहार लें – ऐसा करने से भोजन भली भाँति पचता है और अंग लगता है।

आत्म शक्ति के अनुसार आहार लें – यह आहार मेरे लिए लाभकारी है या हानिकारक है, विचार करके अपनी शक्ति के अनुकूल मात्रा में लिया भोजन हितकारी होता है।

— जग मोहन गौतम