गांवों में कुछ कमी- सी दिख रही है
गांवों में कुछ कमी- सी दिख रही है
लोग तो बहुत है,पर आँखों में नमी- सी दिख रही है
गांवों में वो चहक नही है
खेतों में वो महक नही है
बच्चे गांव छोड़ शहर भाग रहे है
दो वक़्त की रोटी कमाने को परिवार त्याग रहे है
गांवों की गलियों में अब वो किलकारियां नही है
जैसे लग रहा खेतों में फसल तो है,पर बालियां नही है
साथ खेलने वाले वो मज़ाकिया यार नही है
क्यूं नहीं आ रहा वो मजा क्या पहले जैसा इतवार नही है
गांवों के घरों का दिन के उजाले में भी अंधियारा नही जा रहा
बुढ़ापे में माँ- बाप का दिन बिना बच्चों के सहारे गुजारा नही जा रहा
ऐसा रहा तो गांव शमशान बन जाएँगे
गांवों में घर तो रहेंगे,पर इंसान नही रह जाएंगे
गांवों में कुछ सनसनी- सी दिख रही रही है
बिना बच्चों के कुछ कमी- सी दिख रही है
— प्रशांत अवस्थी “रावेन्द्र भैय्या”