बिन पंखों की उड़ान
अपने हाथों को फैलाकर, दिन का स्वागत करती हूँ।
पंख नहीं दिखते हैं मेरे, किंतु उड़ानें भरती हूँ ।।
सूरज ने खिड़की खोली तो, स्वर्णिम किरणें छितरायीं।
धरा सुनहरी चूनर ओढ़े, हौले-हौले शरमायी।।
इन सारे रंगों को अपने, जीवन में मैं भरती हूँ,
पंख नहीं दिखते हैं मेरे, किंतु उड़ानें भरती हूँ ।।
सौगातें जो मिली हमें हैं, दिल से उसे सहेजें हम।
धीरज से उनको स्वीकारें, चाहे खुशियाँ या हो ग़म।।
छोड़ ग़मों को अपने पीछे, पथ में आगे बढ़ती हूँ,
पंख नहीं दिखते हैं मेरे, किंतु उड़ानें भरती हूँ ।।
सिमट गयी थी घर के अंदर, भूल सभी सपने सारे।
मन में कुछ अरमान पले थे, तोड़ूँगी नभ के तारे।।
होना नहीं निराश अभी भी, आशा मन में रखती हूँ,
पंख नहीं दिखते हैं मेरे, किंतु उड़ानें भरती हूँ ।।
— गीता चौबे गूँज