बहुत है
मुझे अस्तित्व ने परखा बहुत है
कि मैंने भी उसे सोचा बहुत है
उसी का ज़िक्र करती हैं ये साँसें
महकता भी वो खुशबु सा बहुत है
मिलेगा वो अगर पहचान लेगा
कि उसने तो मुझे देखा बहुत है
हम उसके पास ज़िद करके चलेंगे
सुना है शांत वो तन्हा बहुत है
— देवकी नंदन ‘शांत’