गीत – जोगन समझ नहीं पाई
दृग रोए हँसे अधर धर कर, मुस्कन की झूठी अरुणाई,
मैं सरित चंचला सागर को,सर्वस्व समर्पित कर आई….
वह बाहु पाश जो अंक समो,विश्वास भाव का द्योतक था,
जो मैले आँचल पर कलंक के, हर बिंदु का शोषक था।
मर्यादित पुण्य प्रसंगों ने,देवों की उपमा दी जिसको,
उसकी निष्ठुरता ने मेरी, निष्ठा किस कारण ठुकराई…
मैं जोगन समझ नहीं पाई….
पोखर पोखर हँसता मुझ पर, नद ताल कूप लज्जित होते
मेरी ममता का पुष्प सघन घन, आह! विसर्जित कर रोते।
ठुकराई गई सिंधु से मैं, किस घाट पुण्य का घट फोडूँ,
किस घाट जले झर्झर झर्झर,यह देह मलिनता की जाई….
मैं जोगन समझ नहीं पाई..
निष्पाप जली विरहानल में,निःशंक पाप से मुक्त करूँ,
अपराध क्षमा सब हैं लेकिन,अब कौन भभूति मांग भरूँ।
यह पांच तत्वों की रेत पड़ी ,तट पर सहर्ष इठलाती है,
अस्तित्व स्वयं का खोकर भी, मैं बिंदु सिंधु से मिल पाई…
बस जोगन समझ यही पाई
ओ जोगी तेरी निठुराई….
— दीपशिखा