शिक्षक दिवस पर
पुराने समय मे हर बच्चा गुरुकुल जाता था, २५ वर्षों तक हर प्रकार की विद्द्यायें सीखता था जिससे उसका जीवन सुखमय बन सके. वेद सीखता था जिससे धर्म के राह मे चलने की ललक पैदा होती थी, शाश्त्र सीखता था जिससे उसे समाज के अनुसार चलने मे परेशानी न हो, शस्त्र सीखता था जिससे वह अपने समाज और सीमा की रक्षा कर सके. आचार विचार सीखता था जिससे उसे भाई चारा बढ़ाने और निभाने मे कोई दिक्कत नहीं आती थी. वह गुरु का सम्मान करता था, गुरु भी ऐसे शिष्य बना देते की खुद गुरु भी अपने शिष्य का सम्मान करता.
ये उस समय की परिस्थितियां थीं और उसी के अनुसार गुरुवों ने शिक्षा का स्वरुप तय किया था, उनमे इतनी शक्ति और दूरदर्शिता होती थी और उन्हें पता था किस तरह की शिक्षा से समाज का विकास हो सकेगा. आज परिस्थितियां और जरूरते दोनों ही बदल चुके है, साथ ही गुरु भी. आज अध्यापक होना बस जीविका का साधन मात्र है , शायद १ % गुरु ऐसे होते हैं जो अपने छात्रों को प्रभावित कर एक मानक स्थापित करते है,
यदि हम कालेज पूर्व स्कूलों पे ध्यान दें तो एक अध्यापक अपनी कक्षा मे आ जाये उसके लिए वही बहुत है. किसी तरह कक्षा पूरी कर जल्दी जल्दी कैसे अपने कोचिंग पहुचे पूरा ध्यान इसी योजना मे निकाल देता है. उसका ध्यान अपने कक्षा के छात्रों पे कम और कोचिंग के छात्रों के पे जादा होता है, आखिर असली कमाई वहीँ से होती है. जो अध्यापक थोड़ा अपने स्कूल के छात्रों पे धायं रखते भी हैं तो वो पक्षपात पे आ जाते है, वो छात्रों का निर्धारण उसके अंको के आधार पर करने लगते है, अर्थात जो जादा अंक लाये वो उनका चहेता. वो भूल जाते है छात्र मतलब भविष्य का छत्र. अंक लाना अति आवश्यक है लेकिन साथ मे उसका सर्वागीण विकास भी एक आवश्यक तत्व है, और ये काम अध्यापक है की यदि उसके अंदर कोई अन्य प्रतिभा है तो उसे आकर देने की पूरी कोशिश करे. लेकिन सामान्य तौर पे ऐसा नहीं होता. कई अध्यापक तो बस महीने के अंत मे तनख्वाह लेने ही पहुचता है.
यदि हम कॉलेज स्तर पे नजर डाले तो जादा से जादा पैसा और पद कैसे बनाए, पे काग दृष्टि लगा के रखते है. उनका ध्यान छात्रों पर कम पद्दोंन्न्ती पे जादा रहता है. विभागीय गुटबंदी, एक दूसरे पे छींटाकशी आम बात है. यदि उनकी पद्दोंनती नहीं भी होती है तो दूसरा वाला सुपरसीड न करे, इसकी योजना बनाते है, इसका एक प्रतिशत भाग भी छात्रों के ऊपर लगाए तो उन्हें व्यक्तिगत पद मिले या न मिले लेकिन छात्रों के ह्रदय मे आजीवान बस जाते है.
कालेज और विश्वविद्द्लय स्तर पर आते आते छात्र परिपक्व हो जाते हैं, वो नफा नुक्सान समझने के लायक हो जाते है, उनमे से कुछ भटक भी जाते हैं, कुछ आशानुरूप परिणाम नहीं दे पाते. मान लीजिए कोई छात्र किसी विषय मे फेल हो जाता है या उसकी पढाई छूट जाती है तो घोर निराशा मे चला जाता है, कभी कभी नौबत तो आत्महत्या तक आ जाती है या कुछ अपराध के रास्ते पर चले जाते है.
एक शिक्षक चाहे तो शिक्षा मे स्वरुप भी निर्धारित कर सकता है. आज के समय मे छात्र किस तरह से समाज और देश के छत्र बन सकते है इस पर चिंतन कर सकते है, लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं होता.
पढाई चाहे किसी भी विषय की हो प्रबंधन, चिकित्सा, अभियांत्रिकी या अन्य कला, वाणिज्य या विज्ञान के साथ साथ, एक कक्षा समाज और देश की राजनीती के बारे मे होना चाहिए एक अनिवार्य विषय के रूप मे, ताकि वो समझ सके वास्तविकता है, जिसके लिए किसी अथिति वक्ता का भी सहारा अलिया जा सकता है जो उस विषय की अच्छी समझ रखता हो. अन्यथा छात्र १८ साल का होके वोटर तो बन जाता है और किसी डकैत को वोट दे डालता है क्योकि तब तक वो जाती पाती के चक्कर मे फस होता है अतः दूरगामी परिणामों का भान उसे नहीं होता.
साथ हो थोड़ी बहुत रोजमर्रा के काम आने वाले कानून के बारे मे भी शिक्षित किया जाना चाहिए. पुलिस बात बात पे आम जन को क़ानून को धता बता विभिन्न रास्तो से धमकाती पायी जाती है जिनमे से अधिकतर तो उनके अधिकार मे भी नहीं होता.
आम तौर छात्रों को जो बाते किताबो मे पढ़ा दी जाती है छात्र वही मान लेते है, जैसे कई छात्रों के मन मे बचपन से ही भर दिया जाता है की अमुक आदमी महापुरुष है, अमुक धर्म मे इस प्रक्कर के शाशन के परिकल्पना है आदि आदि , इस मिथ्या को भी तोडने के लिए छात्रों मे वाद विवाद पर्तियोगिता नियमित तौर पे कराई जानी चाहिए. क्योकि यही सही समय होता है जब छात्रों के ह्रदय मे बसे मिथक को तोड़ा जा सकता है और उसे सामाजिक और सही राह दिखाई जा सकती है.
लेकिन ये सब चीजें तब तक संभव नहीं जब तक शिक्षक अपना कर्तव्य सिर्फ वेतन लेने से ऊपर नहीं समझेगा, जब तक वह अपने छात्रों को व्यग्तिगत रूप से न समझ पाए. आजकल तो शिक्षक को पता भी नहीं होता की उसकर कक्षा मे कितने छात्र है और उनकी रूचि क्या है. एक शिक्षक को समझना होगा की वही है जो समाज के लिए एक मजबूत छत्र का निर्माण कर सकता है.
एक गुरु ही था जिसने एक चरवाहे को मगध का मालिक बना दिया, और एक गुरु जो खुद इर्ष्या और पक्षपात , जातिपात, प्रिय-अप्रिय और स्तर मे पड़ एकलव्य जैसे धनुर्धर का अंगूठा काट लिया जिसके लिए छात्र समाज आज भी उन्हें आदर्श नहीं मानता, यदि इसी प्रकार गुरु पक्षपात और द्वेष मे रहे तो किसी भी देश और समाज का गर्त मे जाना एक स्वाभाविक सी बात होगी. एक गुरु मालवीय जी थे जिन्होंने एक महान विश्वविद्द्यालय की रचना कर दी, और लाखो छात्रों के हृदय मे बस गए और एक गुरु और हैं जो जिनसे शिक्षा पा खास समुदाय जेहाद की तरफ बढ़ बम फोड रहा है, दंगा कर रहा है.
गुरु एक नाव का पतहार होता है जो कईयों की नाव खे रहा होता है, अब ये उसके हाथ मे है की उन्हें पार लगाये या बीच मझधार मे डुबा दे.
— कमल कुमार सिंह