गीत
कई रिक्तियाँ शेष रह गयीं, कहाँ भला कुछ कर पाया मैं?
जब निकले तुम अंतिम पथ पर, मात्र आह ही भर पाया मैं।
क्या सोचा था, और क्या हुआ?
केवल मेरा मन ही जाने।
तुम बिन भ्राता! जग के मेले
लगते हैं मुझको वीराने।
चले गये तुम सम्बल मेरे, खुद को बहुत लचर पाया मैं।
कई रिक्तियाँ……… ………………………
खड़े रहे हम बिल्कुल बेबश,
और प्राण उड़ गये आपके।
हमसे टूटे बंध, प्रभू से –
नेह बंध जुड़ गये आपके।
हाथ छुड़ाकर चले गये तुम, कहाँ आपको धर पाया मैं?
कई रिक्तियाँ………………..
सूना सूना है मन उपवन,
हर एक कोना शोकाकुल है।
किसी से नही कह सकता मैं,
लेकिन मन अतिशय व्याकुल है।
खुलकर कहाँ विलाप कर सका, सिर्फ अश्रुजल भर पाया मैं।
कई रिक्तियाँ……………………
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी