जिंदगी यूं ही
जिंदगी यूं ही
मुठ्ठी भर रेत की तरह,
हाथों से फिसल रही,
हम कुछ कह नहीं पाए,
आगे बड़ती ही गई।
हम सोचते ही रहे
कदम दर कदम बढ़ती चली गई,
हम अब भी कुछ न कह पाए,
जज्बातों में बहती गई।
सोचते सोचते शाम ढल गई,
मानो जिंदगी अब भाग रही,
सोचता हूं पकड़ लूं,,
दास्तां दिल के दिल में ही,
कुछ इस तरह डुब रही है,
हम अब भी कुछ न कह पाए।
चलते चलते अब लग रहा है,
जिंदगी अब रफ्तार पकड़ रही,
जी ले अब इन लम्हों को खुलकर,
लोटकर न आएगी यह जिंदगी।
बीत जाएगे दिन रात,
हम बातों में ही रह जाएंगे,
वक्त की जरा कदर कर ले,
यूं ही बीत जाएगी,
पर बातें खत्म न हो पाएगी,
चलते चलते जिंदगी…
अब हैरान करके जाएगी।
इसलिए जी ले लम्हों को पकड़कर,
काश जिंदगी अब फिर न आएगी।
— गोविन्द सूचिक