सामाजिक

संचार के जाल में में उलझा बचपन

बच्चों की सोशल मीडिया पर व्यस्तता, आनलाइन गेमिंग और इंटरनेट की लत को लेकर दुनिया के कई देशों में एक बार फिर चर्चा तेज हो गई है। आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर चिंता जाहिर की कि सोशल मीडिया के उपयोग की उम्र तय होनी चाहिए। आस्ट्रेलिया में बड़ी संख्या में लोग आनलाइन व्यस्त रहते हैं और बारह से सत्रह वर्ष के लगभग पचहत्तर फीसद बच्चे सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने कहा कि वे चौदह पंद्रह वर्ष की उम्र से पहले बच्चों को सोशल मीडिया के बजाय खेल के मैदानों में खेल का आनंद लेते देखना चाहते हैं।

भारत में भी अभिभावकों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि बच्चों को अपने कंप्यूटर-मोबाइल से दूर रह कर, वास्तविक जीवन के अनुभव लेने चाहिए। बच्चों को अनजान लोगों से आनलाइन जुड़ने की जगह, आसपास के मोहल्ले, बस्ती गांव वास्तविक लोगों से मिलना-जुलना चाहिए, यह सामाजिक और भाषाई विकास सहायक होगा। तमिलनाडु में लगभग बीस फीसद विद्यार्थी आनलाइन गेम की लत से ग्रस्त हैं। वहाँ हुए एक अध्ययन में दो लाख स्कूली और उच्च शिक्षा के छात्रों को शामिल किया कया गया था। इसी तरह राजस्थान के जयपुर में मनोचिकित्सालय की तरफ से बच्चों में इंटरनेट की लत को लेकर उनमें होने वाले व्यावहारिक और भावनात्मक बदलाव पर शोध शुरू हुआ है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश सहित दूसरे राज्यों में भी अभिभावकों, शिक्षकों और मनोवैज्ञानिकों ने अनुभव किया है कि लंबी अवधि तक बच्चों द्वारा कंप्यूटर-इंटरनेट के उपयोग और देर तक आनलाइन गेम खेलने मनोवैज्ञानिक और शारीरिक चुनौतियां उभर रही हैं।

कारण दिल्ली और पड़ोसी राज्यों के अस्पतालों में स्नायविक और सिरदर्द की समस्या से ग्रस्त बच्चों की संख्या बढ़ रही है। बच्चों की नजर कमजोर हो रही है, पीठ दर्द की समस्या बढ़ रही है। बारह से अठारह वर्ष के बच्चों में अत्यधिक ‘स्क्रीन टाइम’ के चलते बेचैनी, अकेलापन, बात-बात पर गुस्सा, अनिद्रा और पढ़ाई में मन न लगने जैसे लक्षण दिखते हैं तो यह चिंता की बात है। अनुमान है कि कोई बच्चा अगर एक घंटा फोन इस्तेमाल करता है तो उसकी नींद सोलह मिनट कम हो जाती है। जब नींद पूरी नहीं होगी, तो एकाग्रता का अभाव होगा और व्यवहार तथा भाषा में उग्रता आ सकती है। कोरोना आनलाइन ‘के बाद से स्कूली छात्रों में एकाग्रता की समस्या कई जगह देखी गई है।

‘यूनेस्को’ ने पहले ही, सीखने की गुणवत्ता की चिंता, एकाग्रता की समस्या, कक्षा में अवरोध, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी खतरों के चलते दुनिया भर के स्कूलों में स्मार्ट फोन को प्रतिबंधित करने की अपील की थी, लेकिन अभी उसका असर एक चौथाई देशों में ही हुआ है। ब्राजील की एक संस्था ने 2017-2018 में एक अध्ययन किया था, जिसमें पाया गया कि तीन घंटे से अधिक समय तक फोन का उपयोग करना बच्चों के लिए खतरनाक होता है। अधिक फोन इस्तेमाल करने वाले चौदह से अठारह वर्ष आयु वर्ग के 2628 छात्रों पर हुए इस अध्ययन का निष्कर्ष यह था कि 39 फीसद लड़के और 55 फीसद लड़कियां ‘थोरासिस स्पाइन पेन’ (टीएसपी) से ग्रस्त थीं। इस वजह से गर्दन से लेकर पीठ के निचले हिस्से में दर्द बना रहता है। भारत सहित दूसरे देशों में अभिभावक समझ नहीं पा रहे हैं कि अपने बच्चों के शारिरिक स्वास्थ्य के लिए कैसे उन्हें खेल के मैदान पर भेजें।

तकनीकी हमारे जीवन को कुछ सुगमता दे रही है, लेकिन उससे बढ़ती परेशानियां अब घरों के भीतर दिख रही है। आज के बच्चों की बाहरी दुनिया मुख्य रूप से सोशल मीडिया के आसपास सिमटती जा रही है। इंस्टाग्राम और फेसबुक के ‘लाइक’ से वे खुश और दुखी हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर वे दिखाना चाहते हैं कि उनकी जिंदगी कितनी शानदार है और वे किसी की परवाह नहीं करते हैं। बच्चों में कुछ भी मांगने का चलन बढ़ रहा है, भले ही उस सामान की कोई बहुत जरूरत न हो। कुछ भी मांगते रहने में केवल बच्चों का अपना दोष नहीं है। बच्चों के लिए सामान बनाने वाली कंपनियां अब बच्चों को अपना ‘कर्मचारी/ ब्रांड एंबेसडर रखती और उनके जरिए सोशल मीडिया पर ‘मार्केटिंग’ कराती हैं। मनोवैज्ञानिकों की मदद से बच्चों के लिए ऐसी ‘मार्केटिंग’ रणनीति बनाई जा रही है, जिसमें अभिभावक बीच न आएं और सीधे बच्चों तक ‘प्रोडक्ट’ या उत्पाद दिख जाए। सुसान लिन ने ने एक पुस्तक लिखी है- ‘हू इज रेजिंग द किड्स ?’ उसमें बताया गया है कि कैसे तकनीकी के साथ बाजारी संस्कृति और उपभोक्तावाद बच्चों पर प्रभाव डाल रहा है। लिन मानती हैं कि पैदा होते ही बच्चा मीडिया, एप्प और खिलौने बनाने वाली कंपनियों के लिए एक आकर्षक शिकार बन रहा है। इस किताब में रसेल बैंक का उल्लेख है। रसेल बैंक ने ने बाजार की अधिकाधिक मुनाफे की प्रवृत्ति पर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि ‘यह बाजार वाला समाज अपने बच्चों को उपभोक्ता में बकहा है बदल देता है, जिसमें बच्चे सिर्फ मांगते हैं। बच्चों और उनके माता-पिता को यह बाजार वह बेचेगा जो बच्चे मांग रहे हैं, न कि वह चीज, जिसकी बच्चों को वास्तव में जरूरत है।’ मगर इन समस्याओं को चिह्नित कर लेने के बाद भी समाधान क्या है ? बड़ी चुनौती यह है कि अभिभावकों के पास अपने बच्चों के लिए ही समय निकालना असंभव लगता है। अभिभावक अपनी भूमिका ही नहीं समझ पा रहे हैं और बच्चों के बाजार तथा दूसरों के भरोसे पल जाने की कल्पना कर रहे हैं। 

आनलाइन लत के कारण बच्चों की सामाजिक परिधि छोटी होती जा है। उनमें शरीरिक श्रम से। श्रम से पलायन का भाव दिख रहा है। भागदौड़ की जिंदगी में अभिभावक अपने बच्चों से सुबह-शाम भी नहीं मिल पाते हैं। आखिर, माता-पिता की जगह टीवी- कंप्यूटर से बच्चे नैतिकता सीख रहे हैं।बच्चे इंटरनेट के जरिए किसके संपर्क में हैं, क्या देख रहे हैं, क्या कर रहे हैं, अभिभावकों के पास यह जानने-सुनने का समय ही नहीं है। तकनीकी विकास से बढ़ता बाजार हमें कहां ले जा रहा है?

आस्ट्रेलिया में 2022 में ‘ई सेफ्टी’ लेकर हुए एक सर्वे में वयस्कों अपने आनलाइन के अनुभव साझा किए थे उसमें अवांछित सामग्री भेजने से लेकर बिना अनुमति उनके खाते तक पहुंचने की चिंता सामने आई थी। इसीलिए बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल की बात आस्ट्रेलिया में उठी है। इसके पहले यूरोपीय संघ ने भी ऐसा प्रयास किया था कि बच्चे एक निर्धारित उम्र से पहले सोशल मीडिया का इस्तेमाल न करें, मगर बच्चों के आनलाइन अधिकारों की वकालत करने वाले संगठनों की आलोचना से यूरोपीय संघ सोशल मीडिया उपयोग के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं लागू करवा पाया। अब सवाल है कि क्या अभिभावक अपने स्तर पर बच्चों के ‘स्क्रीन टाइम’ को कम करने की पहल कर सकते हैं?

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट

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