आशीर्वाद : वरदान का प्रतीकात्मक रूप
“अभिवादनशीलस्य नित्यम वृद्धोपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुविद्या यशोबलम,” अर्थात जो बालक अपनों से बड़ों अर्थात माता पिता को प्रतिदिन प्रणाम अर्थात अभिवादन करता है । उस व्यक्ति की चार चीजों में वृद्धि होती है आयु, विद्या, यश और बल। भारतीय संस्कृति में अभिवादन की परंपरा अनंत काल से चली आ रही है। श्री रामचरितमानस के बालकांड में भगवान श्री राम की दिनचर्या का उल्लेख है जिसमें सबसे पहले प्रातः काल उठकर अपने से बड़े लोगों एवं गुरुजनों को प्रणाम करने की बात कही गई है।
प्रात काल उठि कै रघुनाथा
मात-पिता गुरु नावहिं माथा
आयषु मांगि करहिं पुर काजा
देखि चरित हरषइ मन राजा
अर्थात श्री राम प्रातः काल उठकर माता-पिता और गुरु को प्रणाम करते हैं और उनकी आज्ञा लेकर ही सभी कार्य करते हैं ।उनका आदर्श चरित्र देख-देख कर राजा दशरथ का हृदय अपने पुत्र के लिए आनंदित हो जाता है । हमारे भारतीय शास्त्रों में प्रणाम करने की परंपरा चिरकाल से रही है। प्रणाम के भाव से जब भी कोई व्यक्ति अपने से बड़ों के समक्ष झुकता है तो उसमें स्वत ही विनम्रता व शालीनता के गुण विद्यमान हो जाते हैं । प्रणाम का सीधा संबंध प्रणीत से है जिसका अर्थ है विनीत , नम्र होना और किसी के सामने सिर झुकाना। प्रणीत व्यक्ति अपने दोनों हाथ जोड़कर और उन हाथों को अपने वक्ष स्थल से लगाकर बड़ों को प्रणाम करता है । कहा गया है कि प्रणाम करते समय दोनों हाथ की अंजलि वक्ष स्थल से लगाकर बड़ों को प्रणाम करना चाहिए । हमेशा प्रणाम करते समय दोनों हाथ की अंजलि वक्ष स्थल से जुड़ी हुई हो, ऐसा करने के पीछे यह भी कारण है, कि प्रतीक स्वरूप हमारा पूरा अस्तित्व सम्माननीय व्यक्ति के समक्ष समर्पित हो जाता है। वक्ष स्थल से हाथ जोड़ने का अर्थ हृदय के संबंध से है । भारतीय परंपरा में इसी प्रकार प्रणाम करने की परंपरा रही है । प्राचीन काल में गुरुकुलों में गुरु के प्रति शिष्यों का दंडवत प्रणाम करने का विधान था जिसमें शिष्य, गुरू या अन्य किसी विशेष व्यक्ति के चरणों में साष्टांग लेट कर प्रणाम करते थे । इस तरह के प्रणाम करने का उद्देश्य है कि गुरु के चरणों के अंगूठे से प्रवाहित हो रही ऊर्जा को अपने मस्तिष्क पर धारण किया जाए । इस ऊर्जा के प्रभाव से शिष्य के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन होने लगता है । भारतीय धर्म शास्त्रों में ऐसा करने पर गुरु द्वारा हाथ उठाकर आशीर्वाद देने का विधान रहा है । शास्त्रों के अनुसार जब गुरु हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं तब उनके हाथ की उंगलियों से निकला ऊर्जा का प्रभाव शिष्य के मस्तिष्क में प्रवेश कर जाती है, जो उसके जीवन को प्रभावित करती है। इस आशीर्वाद को ग्रहण करने के लिए शिष्य का कर्त्तव्य है, कि गुरु को पूर्ण रूप से समर्पित होकर प्रणाम करें। स्पष्ट है कि गुरु को बिना प्रणाम किये आशीर्वाद स्वरूप ऊर्जा को ग्रहण कर पाना संभव नहीं है । जब किसी व्यक्ति को प्रणाम किया जाता है तो स्वतः ही उसके अंतःकरण से आशीर्वाद निकलता है। इस आशीर्वाद का हमारे जीवन में बहुत महत्व है ।यह हमारे सम्पूर्ण जीवन को सफलता पूर्वक बदलाव लाने में सहयोग करता है। आशीर्वाद एक तरह से किसी व्यक्ति के अंतर्मन से निकले हुए शुभ भाव होते हैं । जो व्यक्ति को प्रभावित करते हैं, यदि आशीर्वाद या आशीष वचन के साथ मनुष्य की तप शक्ति, संकल्प शक्ति जुड़ी हुई होती है तो ऐसे आशीर्वाद शीघ्र फलित होते हैं और प्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव दिखाते हैं ।आशीर्वाद के चार अक्षर प्रतीक रूप में चार शब्द हैं आयु, विद्या, यश, बल। जिस शुभकामना से व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है।वही आशीर्वाद है । जिन लोगों को बार-बार आशीर्वाद मिलने पर भी कोई लाभ अर्थात किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती है। तो इसका तात्पर्य है, कि उन्होंने ना तो श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और ना ही श्रद्धा पूर्वक आशीर्वाद लिया। आशीर्वाद जीवन में तभी प्राप्त हो सकेगा ,जब व्यक्ति आशीर्वाद के प्रभाव को धारण कर पाए, यदि व्यक्ति के अंदर ग्रहणशीलता नहीं है या वह किसी वस्तु को ग्रहण करने से इनकार करता है। तो उसे फल स्वरूप कुछ भी नहीं दिया जा सकता। इसी तरह यदि कोई आशीर्वाद दे, लेकिन आशीर्वाद देने वाले व्यक्ति के अंदर यदि अहंकार का भाव होगा तो उस व्यक्ति में विनम्रता नहीं आ सकती, ऐसा व्यक्ति आशीर्वाद का लाभ नहीं ले सकता है।भारतीय संस्कृति में प्रणाम की परंपरा इसीलिए रखी गई है। जिससे व्यक्ति विनम्र बने, ना कि अहंकारी। जो व्यक्ति अपने से किसी बड़े व्यक्ति को या महापुरुष को प्रणाम करता है तो प्रणाम करने का भाव ही व्यक्ति की विनम्रता को प्रकट करता है और यही विनम्रता दूसरों से मिलने वाले आशीर्वाद को ग्रहण करने के योग्य बनाती है। आज वर्तमान परिदृश्य में प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व में अहंकारिता को नष्ट कर अच्छे आचरण को विकसित करने के लिए नित्य प्रणाम करने की आदत डालनी चाहिए। जिससे भावी पीढ़ी अपने माता- पिता के आशीर्वाद स्वरूप आशीष वचनों से हमेशा के लिए वंचित न रहे।
— डॉ. पूर्णिमा अग्रवाल