लाठी
घावों को सहलाती हुई नीता ने अपनी सखी सुमी का नम्बर मिला लिया। उसके हर दुख सुख की साथी थी वह। मोबाइल उठाने तक अधीरता से वह उससे हुई पिछली वार्ता बिसूरने लगी थी-
‘मेरा बेटा अब बड़ा हो रहा है सुमी।’
‘तो क्या वह तेरा साथ देगा ?’
‘हाँ, क्यों नहीं! आखिर मैंने उसे जन्म दिया है। लोगों के उलाहनों के साथ पति के ताने भी उसके लिए ही सहती रही कि जब जवान होगा तो मेरे साथ खड़ा होगा। परिजनों के रोक-टोंक के बावजूद उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा दिला रही हूँ। उसे बड़ा करते हुए न जाने कितनी बार लक्ष्मण रेखा लांघने पर मैंने अपने तन-मन पर घाव झेलें हैं।’
‘ मैं भी सोच रही थी कि पति और परिवार के दिए घाव मेरे बच्चे भरेंगे, लेकिन किशोरावस्था में ही मेरे बच्चे मेरे विरुद्ध खड़े मिलते हैं!’
‘किन्तु मेरा बच्चा मातृभक्त और आज्ञाकारी है सुमी। अभी से ही रिश्तेदारों, यहाँ तक कि अपने पिता से भी मेरे लिए विद्रोह कर बैठता है| भविष्य में वह मेरी लाठी अवश्य बनेगा!’
“कूप-मंडूक मत बन नीता, मैं तो तुझे आगाह कर रही थी। आगे तेरी इच्छा…।”
अतीत के गलियारे में घूमती हुई अचानक घाव पर हाथ लगते ही पीड़ा से कराह उठी- “आह..!”
“क्या हुआ नीता, बहू आने के बाद भी तेरे पति ने तुझसे मारपीट करना नहीं छोड़ा! तेरा बेटा तेरी लाठी नहीं बना?” मोबाइल पर बचपन की सखी की घबराहट भरी आवाज आई।
“बेटा लाठी बना तो सुमी…! सख्त लाठी बना ! लेकिन वह लाठी आए दिन बहू के समर्थन में मुझपर ही तनी रहती है|”
— सविता मिश्रा ‘अक्षजा’