नींद
नींद की बात होने लगी है बहुत,
रात पलकों पे’ सोने लगी है बहुत।
तल्खियों से न हासिल हुआ कुछ यहाँ,
तल्खियाँ घर डुबोने लगी हैं बहुत।
तूल देना नहीं व्यर्थ की बात को,
बात भी शूल बोने लगी है बहुत।
हो अगर तुम सही तो गलत मैं कहाँ,
धूल देखो तो’ कोने लगी है बहुत।
जिंदगी ये हमारी क्षणिक ही सही,
जान भी हाथ धोने लगी है बहुत।
आ न जाए दिलों में कहीं दूरियाँ,
पीर उर को भिगोने लगी है बहुत।
बीच अपने न जाने है’ क्या घट गया,
प्रेम की ‘गूँज’ खोने लगी है बहुत।
— गीता चौबे गूँज