सामाजिक

आभासी गिरफ्त में वास्तविक लोग

तकनीक और विज्ञान के लिए यह उक्ति नई नहीं है कि वरदान के साथ इसके कुछ अभिशाप भी हैं, जो हमें झेलने पड़ सकते हैं। मगर कोई तकनीक महामारी का रूप धर ले, तो इससे जुड़ी चिंता काफी बड़ी हो जाती है। मौजूदा वक्त में हमारे देश के लिए ‘डिजिटल अरेस्ट’ एक ऐसा ही संकट है, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री ने हाल में अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में किया। देश की जनता को इसके खतरे से आगाह करते हुए उन्होंने अपील की कि लोग सतर्क और जागरूक रह कर इस खतरे का मुकाबला कर सकते हैं। सवाल है कि आखिर प्रधानमंत्री को इस आह्वान की जरूरत क्यों पड़ी। क्या साइबर धोखाधड़ी रोकने के उपाय बेअसर साबित हो रहे हैं या फिर आम लोगों की इस बारे में जागरूकता इतनी कम है कि वे साइबर फर्जीवाड़ा करने वालों की चाल में फंस जाते हैं।

जबसे देश में नकद लेनदेन की जगह डिजिटल भुगतान की व्यवस्था बनी है और लोगों का उसमें रुझान बढ़ा है, साइबर धोखेबाजों ने इस रास्ते आम जनता को ठगने के लिए अनेक कारगुजारियां की हैं। हालत यह है कि सरकार और उसकी एजेंसियां साइबर ठगी से लोगों को बचाने के जो इंतजाम करती हैं, वे जल्द ही इस किस्म की धोखाधड़ी करने वालों के आगे नाकाफी साबित होने लगते हैं। आम जनता को कहा जाता है कि मोबाइल से बैंकिंग लेनदेन के वक्त पिन, पासवर्ड, ओटीपी किसी से साझा न करें, तो साइबर ठग कोई विश्वसनीय दिखने वाला लिंक भेज कर लोगों के फोन ही हैक कर लेते हैं। ऐसे में सारे पिन और ओटीपी ठगों के वांछित फोन पर जाने लगते हैं और देखते ही देखते लोगों के बैंक खातों में जिंदगी भर की जमा पूंजी चली जाती है। इस पर लगाम लगती, इससे पहले ‘डिजिटल अरेस्ट’ के रूप में की जाने वाली लूट सामने आने लगी।

‘डिजिटल अरेस्ट’ साइबर लुटेरों के हाथ लगा कितना बड़ा हथियार है, इसे इससे समझा जा सकता है कि वर्ष 2024 की पहली तिमाही में पूरे देश ‘साइबर ठगी की करीब साढ़े सात लाख शिकायतें दर्ज की गई। उनमें उनमें से 120.3 करोड़ रुपए की चपत आम लोगों को आभासी गिरफ्तारी का डर दिखा कर लगाई गई है। बीते एक वर्ष में आम जनता साइबर ठगी के जरिए 1776 करोड़ रुपए की रकम गंवा चुकी है। हालांकि इसमें 1420 करोड़ रुपए सीधे-सीधे शेयर बाजार की लुभावनी योजनाओं का झांसा देकर, 222.58 करोड़ रुपए निवेश की अन्य फर्जी योजनाओं में फंसा कर और करीब सवा तेरह करोड़ रुपए रोमांस से जुड़ी ‘डेटिंग साइट’ में उलझा कर ठगों ने लोगों से वसूले हैं। लेकिन इधर जो चिंता देश के आर्थिक पटल पर सबसे अहम खतरे के रूप में उभरी है, वह है ‘डिजिटल अरेस्ट’।

आखिर ‘डिजिटल अरेस्ट’ नामक फर्जीवाड़ा क्या है और यह दूसरे किस्म की साइबर धोखाधड़ी से कैसे अलग है। असल में, अभी जो आनलाइन धोखाधड़ी साइबर ठग कर रहे हैं, उनमें लोगों के बैंकिंग विवरण (जैसे पिन, पासवर्ड, ओटीपी) जान कर खातों से रकम उड़ाना प्रमुख है। लोगों को उनके मोबाइल फोन पर उग कोई लिंक भेजते हैं, जिस पर क्लिक करने और मामूली रकम का बैंकिंग लेनदेन करने पर साइबर ठगों को उस व्यक्ति के बैंक खाते से जुड़ी अहम जानकारियां मिल जाती हैं। इसके बाद ये धोखेबाज लोगों के खातों में जमा रकम निकाल लेते हैं, जिसका पता काफी समय बाद लग पाता है। ठगे गए लोग साइबर थानों में समय पर शिकायत भी दर्ज नहीं करा पाते हैं।

ज्यादातर मामलों में ये ठग खातों से सारी रकम निकाल कर रफू चक्कर हो जाते हैं। तब पुलिस या अन्य एजेंसियां किसी तरह इन तक पहुंच भी जाएं, तो रकम की वसूली आसान नहीं होती। हालांकि जागरूकता अभियानों के कारण लोग कुछ सतर्क हुए हैं, लेकिन ऐसा होते देख साइबर ठगों ने धोखाधड़ी का एक नया तरीका ‘डिजिटल अरेस्ट’ के रूप में निकाल लिया है।

इसमें असली पुलिस या जांच एजेंसियों के वास्तविक अधिकारियों के वेश में ठग लोगों को गिरफ्तारी का डर दिखा कर पैसे ऐंठने का प्रयास करते हैं। यानी इसमें किसी शख्स को मोबाइल फोन पर वीडियो या सामान्य काल करते हुए गिरफ्तारी या सीबीआइ अथवा आयकर जांच का भय दिखाया जाता है। एक बार जब कोई व्यक्ति इनके जाल में फंस जाता है, तो वह इनके आगे खुद को निरुपाय महसूस करने लगता है। तब ये साइबर ठग उस व्यक्ति को अपनी सारी जमा-पूंजी बताए गए बैंक खातों में खुद ही भेजने को मजबूर कर देते हैं। देखा गया है कि ‘डिजिटल गिरफ्तारी’ वाले ज्यादातर मामलों में सबसे पहले एक अनजान स्रोत से काल आती है। इसमें फोन करने वाला व्यक्ति खुद को सामान डिलीवरी करने वाली कूरियर सेवा का प्रतिनिधि होने का नाटक करता है। वह दांव फेंकता है कि आपके द्वारा भेजा गया एक कूरियर किसी बंदरगाह या एअरपोर्ट पर जांच में फंस गया है, क्योंकि उसमें गैरकानूनी मादक पदार्थों की खेप मिली है। इस प्रकार झांसे में आए व्यक्ति को अंतरराष्ट्रीय तस्करी के गिरोह का सदस्य बता कर उसकी बात पुलिस समेत अन्य जांच एजेंसियों के नकली अधिकारियों से कराई जाती है। फर्जी एफआइआर गिरफ्तारी का वारंट और अन्य नकली दस्तावेज मुहैया कराए जाते हैं, जिनमें पीड़ित का नाम दर्शाया जाता है। ऐसी स्थिि मैं पीड़ित व्यक्ति बुरी तरह भयभीत हो जाता है।

‘डिजिटल गिरफ्तारी’ वाले मामले सिर्फ कूरियर कंपनी के झांसों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें लोगों के बेटे या बेटी के किसी मामले में फंसे होने, यौन शोषण के आरोपी होने, किसी आर्थिक धोखाधड़ी में शामिल होने जैसे तमाम मामलों का हवाला असली दिखने वाले फर्जी सबूतों के आधार पर करते हैं। ऐसे मामलों में वर्दीधारी पुलिस अधिकारी वीडियो काल पर किसी थाने में बैठे हुए पुलिसिया भाषा बात करते दिखाया जाता हैं। पीड़ित को जब गिरफ्तारी की आशंका सच में बदलते हुए प्रतीत होती है, तो वह बिना देर किए ठगों के संकेत पर मांगी गई रकम भेजने में ही अपनी भलाई समझता है। अगर व्यक्ति थोड़ा सजग रहे, रुपए-पैसे के लेनदेन से जुड़ी अपनी निजी जानकारी साझा करने से बचे और आभासी गिरफ्तारी के डर पर काबू पा ले, तो साइबर लुटेरों के मनसूबे पूरे नहीं हो सकते। इसमें पहली शर्त यही है कि अनजान नंबरों से आए फोन को सुना ही न जाए। अगर कोई फोन काल सुनना जरूरी हो जाए, तो बिना डरे और निजी जानकारियां साझा किए, बात की जाए। | देश “में फर्जी आधार कार्ड, नकली पहचान पत्र और पते- ठिकाने से जुड़े फर्जी दस्तावेजों के आधार पर बैंक खातों के खोले जाने से समस्या और बढ़ी है। ऐसे में पकड़ में आए साइबर ठगों के नाम, फोटो और पते को सार्वजनिक करते हुए कड़ी सजा देना जरूरी है। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो सिर्फ गाल बजाते रहने भर से साइबर फर्जीवाड़े हरगिज नहीं रुकेंगे।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट