स्व. स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती
(25 दिसम्बर 2024 को जन्मोत्सव के अवसर पर विशेष लेख)
प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष एक गगन चुम्बी प्रकाश स्तम्भ की भाँति प्राज्जवल संस्कृति की किरणों का आलोक विश्व भर में बिखेरता रहा है। जिसका आधार वेद है। वेद भारतीय संस्कृति की आत्मा है। ये मानव जाति के लिए प्रकाश स्तम्भ है। विश्व को संस्कृति का ज्ञान देने का श्रेय वेदों को है। वेद ही विश्व शान्ति, विश्व बन्धुत्व और विश्व कल्याण के प्रथम उद्धोषक हैं। वेदों की ज्योति ने ही आर्य जाति की समुन्नति का मार्ग प्रशस्त किया था। वेदों में मानव मात्र के कल्याण के लिए समस्त विधाएँ विधमान हैं। युग प्रवर्त्तक स्वामी महर्षि दयानन्द सरस्वती ने “वेदों की ओर लौटो“ का उदघोष करके उसकी महत्ता को बढ़ाया। प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में शिक्षा के लिए गुरूकुल की परम्परा रही है जो निरन्तर वर्तमान में प्रगति के पथ पर अग्रसर है।
ऋषि-मुनियों की परम्परा का अनुसरण करते हुए गुरू शिष्य के संबंध को स्थापित करते हुए लाखों लोगों की आस्था और श्रद्धा के केन्द्र बिन्दु श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती (पूर्वनाम नाम डॉ॰ धर्मपाल आचार्य) ने महाभारत कालीन प्राचीन तीर्थ स्थली पुष्पावती धाम (पूठ) के नाम से प्रसिद्ध पतितपावनी गंगा किनारे गढ़मुक्तेश्वर के निकट गुरू द्रोणाचार्य की तपस्या स्थली, कोरव-पाण्डवों की परीक्षा एवं शिक्षा स्थली, एकलत्य की साधनास्थली, पर गुरूकुल पूठ की स्थापना की थी। पूज्य गुरू जी ने गुरू द्रोणाचार्य की तपोभूमि पर पुनः गुरूकुल की स्थापना करके समाज को नई दशा व दिशा प्रदान की थी। पूज्य गुरू जी का जन्म 25 दिसम्बर 1953 को ग्राम ततारपुर जनपद-हापुड़ में एक किसान परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम स्व॰ श्रीमति नसीब कौर और पिता जी का नाम स्व॰ पहलवान धनत्तर सिंह था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गुरूकुल ततारपुर में स्व॰ स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेद तीर्थ जी के मार्ग निर्देशन में हुई। स्वामी जी की शिक्षा एम॰ए॰ (संस्कृत) विद्या भास्कर व्याकरणाचार्य, पी-एच॰डी॰ तक हुई थी। कई गुरूकुलों व विश्वविद्यालयों में स्वामी जी ने शिक्षा प्रदान की थी।
शिक्षा प्राप्ति के बाद गुरू जी ने गुरूकुल ततारपुर के प्राचार्य पद को सुशोभित किया। आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करते हुए एवं शिक्षण कार्य के साथ-साथ यज्ञ के प्रति लोगों को जाग्रत किया। उन्होंने आर्य वीर दल के माध्यम से युवाओं को कुरीतियों से दूर किया। गुरू जी ने देश के कई प्रान्तों में आर्य समाज का प्रचार-प्रसार किया। आर्य प्रतिनिधि सभा लखनऊ के मंत्री भी रहें। उन्होंने हजारों आर्य समाजों की स्थापना करके ऋषि दयानन्द सरस्वती के उद्घोष “कृण्वन्तों विश्वमार्यम“ को जन-जन तक पहुचाया। कई-वर्षों की कठिन तपस्या व साधना के बाद गुरू जी ने गुरूकुल परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गढ़मुक्तेश्वर के निकट पुष्पावती धाम (पूठ) में गुरूकुल की स्थापना की। गुरू द्रोणाचार्य के नाम से प्रसिद्ध पुष्पावती पूठ में गुरूकुल की पुनः स्थापना का गुरूकुल पूज्य गुरू जी का उद्देश्य गुरूकुल के माध्यम से ब्रह्मचारियों की शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ समाज में वैदिक संस्कृति का प्रचार करना था। पूज्य गुरू जी ने गौ-गंगा-गायत्री एवं वैदिक संस्कृति की रक्षा का व्रत लेकर भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए शारीरिक, आत्मिक बौद्धिक शक्ति का विकास करने की भावना से युवको को चरित्र निर्माण एवं वेद पठन-पाठन कर वेद-धर्म के प्रचार की भावना से प्रशिक्षित करने के “उपहरे च गिरीणां संगमे च नदीनाम् धियो विप्रोऽजायत“ इस वेद के आदेश पर स्थान का चेयन किया। पुज्य गुरू जी ने गुरूकुल के साथ ही आदर्श गऊशाला, वृद्धाश्रम, योग साधना केन्द्र, वानप्रस्थ साधना आश्रम, औषधीय वनस्पति संरक्षण, वैदिक प्रचार-प्रसार, प्राकृतिक चिकित्सालय, धनुर्विद्या अभ्यास केन्द्र, वैदिक सत्संग मण्डल आदि प्रकल्पों की स्थापना थी।
इन प्रकल्पों के माध्यम से समाज सेवा के कार्य किये जा रहे थे। गुरू जी पूरे मनोयोग के साथ समाज कार्य कर रहे थे। काल के क्रुर काल चक्र ने पूज्य गुरू जी को दिनांक 23 अक्टूबर 2019 को हम से छीन लिया। 23 अक्टूबर 2019 को गुरू जी के देहावसान के बाद गुरूकुल परिवार अनाथ हो गया लेकिन नियति के सामने किसी की नहीं चलती। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अन्तिम वाक्य “हे प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो“ को शाश्वत मानकर पुनः पूज्य गुरू जी के अधूरे कार्यों व स्वप्नों को पूर्ण करने का प्रयास कर रहे हैं। यह मेरा परम सौभाग्य रहा कि बाल्यकाल से लेकर अन्तिम समय तक उनकी सेवा करने का सुअवसर मिला। पूज्य गुरू जी के सान्निध्य में जो सीखा उन्होंने जो सिखाया उसको ग्रहण करके गुरूकुल के लिए आवश्यक गतिविधियाँ व कार्यवाही करता रहा।
आवश्यक कार्यवाहीयों से निश्चिन्त हो कर स्वामी जी ने पूरा समय समाज को प्रदान किया शास्त्रों में लिखा है गुरूब्रह्मा गुरूविष्णु….अर्थात् गुरू ब्रह्मा भी विष्णु भी होता है गुरूओं की वाणी सत्य और शाश्वत होती है और यदि प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में कोई वाक्य गुरू की लेखनी से लिख जाए तो वह अवश्य सत्य होती है और प्रमाण भी। पूज्य गुरू जी के श्रीचरण कमलों में बैढ़कर जो सिखा है उसी को आत्मसात करते हुए पूरे गुरूकुल परिवार के साथ अधूरे कार्यों एवं उनके स्वप्नों को पूर्ण करने के लिए हम सब दृढ़ संकल्पित है। गुरूकुल परिवार पूरे मनोयोग से उस कार्य में प्रयासरत है।
मैं गुरूकुल के समस्त शुभचिंतकों को पूर्ण विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी आशा और आकांक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करेगे। मैं सभी महानुभावों से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने इष्ट मित्रों सहित एक बार गुरूकुल में अवश्य पधारें- आपके दर्शनों की प्रतीक्षा में…
— डॉ. आचार्य सोमेन्द्र शास्त्री