सर्वहारा कौन ?
पहली पहली बार केरल की धरती पर उसका जाना हुआ, राजधानी तिरुअनंतपुरम में बस से एक चौराहे पर उतरना हुआ। कुछ लोग बस घेर कर चुपचाप निहारते हुए खड़े हो गए, बिना बोले, आगंतुक युवक की अटैची बस की छत पर लाद दी गई थी, उसने इधर उधर देखा, यहां बस का कोई कर्मचारी मदद को नहीं दिखा, बस का कंडक्टर जल्दी मचा रहा था, भाषा का अपरिचय आड़े आने लगा, आगंतुक युवक चटपट बस के ऊपर चढ़कर अपना सामान उतार लाया और बस चली गई। चूंकि उस चौराहे पर आगंतुक युवक अकेला उतरा था तो बस को पहले घेर कर खड़े हुए लोग अब आगंतुक को घेर कर खड़े हो गए और उनमें से एक बोला, “एक सौ रुपए”, और युवक उसका मुंह ताकने लगा, “क्या ?”
“कुली के सौ रुपए” वही फिर बोला।
युवक को पहले उसकी हिंदी पर विस्मय हुआ, अभी बस के उतरने के बाद कोई कुछ नहीं बोला था और अब एक सौ रुपए की बात कैसे कह रहे हैं, मन ही मन सोचने लगा कि उसके बाप की तनख्वाह दो हजार भी नहीं है, एक सौ रुपया एक बड़ी राशि है, लेकिन ये मांग क्यों रहे हैं, शायद कुली होंगे , सामन को कहीं ढोकर ले जाने को कह रहे होंगे !
“सामान उतारने का काम हमारा है”, कुली बोला।
“लेकिन अपना सामान मैने खुद उतार लिया है”, युवक ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया।
“आपने क्यों उतारा, हमारा काम अपने क्यों किया, पैसे तो देने ही पड़ेंगे, चाहो तो इन सबसे पूंछ लो”, कुली सत्यनिष्ठ होने का स्वांग करने लगा ।
“हां, हां, हम यूनियन के आदमी हैं, आपको हमारा मेहनताना देना ही पड़ेगा”, सब बोल पड़े।
“अरे, सामान तो खुद मैने उतार लिया,और मैं यहां पढ़ने आया हूं, स्टूडेंट हूं भाई”, युवक ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया।
“कहां से आए हो, यूपी से, आरएसएस के हो, मेहनताना दो और अपना सामान ले जाओ”, सामान को अपने कब्जे में लेता हुआ यूनियन वाला श्रमवीर बोला और आराम से मांगी गई धनराशि की उगाही की प्रतीक्षा करने लगे।
युवक परेशान हो उठा, उसे मार्क्स के दर्शन की याद हो आई, क्या था, हां, डिक्टेटरशिप ऑफ प्रॉलिटेरियंस यानी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, उसका प्रकट रूप सामने था, अब युवक समझ चुका था कि बिना भुगतान भुगते उसे निजात नहीं मिलने वाली, ज्यादा तिगिड़ बिगिड़ करने पर मार भी पड़ सकती है।
युवक ने आशा भरी निगाहों से एक बार उस यूनियन के मानद कुली को देखा और फिर बड़े हताश भाव से अपने बाप की कमाई से पूरे एक सौ रूपये ढीले कर दिए।
जिस कार्ल मार्क्स का अभी तक वह गीत गाता नहीं अघाता था, उसके व्यवहार रूप की झलक देखकर वह अंदर तक हिल गया।
— राजेश कुमार द्विवेदी