स्व का बोध, मिटाए गुलामी के चिह्न
स्व अर्थात् हमारी स्वयं की पहचान, स्वयं का व्यक्तित्व। जीवन में स्वाभिमान से जीना हो तो स्व चाहिए, स्वयं को स्थापित करना है तो स्व चाहिए। स्व ही हमको परिभाषित करता है। समाज में जीवित रहने का मूल आधार ‘स्व’ है। ‘स्व’ नहीं तो समाज भी नहीं रह सकता। उदाहरण स्वरूप पर्शिया देश सामने है, पर्शिया में पर्शिया का कुछ नहीं, न भाषा, न पूजा, न महापुरुष, न ग्रंथ। उनका अपना कुछ नहीं है। ‘स्व’ का लोप होने से समाज मर गया। गीत की पंक्ति भी है – यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से, अब तक मगर है बाकी नामों निशाँ हमारा, कुछ तो बात है की हस्ती मिटती नही हमारी, अर्थात् पर्शिया, यूनान, मिस्र, रोम आज सभी हैं किंतु उनकी पहचान नष्ट हो गई उनका स्व मर गया। जिस व्यक्ति का स्व नष्ट हो जाता है उसे दास कहा जाता है अर्थात् गुलाम कहते हैं। स्व व्यक्तिगत जीवन से होते हुए पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन से होकर बोधित होता है। भारत के समग्र इतिहास को जब हम गंभीरता से अध्ययन करते हैं तो पाएंगे कि भारत की परकियों से लड़ाई स्व के लिए थी। भारत स्वाधीन हो, स्वदेशी भाषा हो, स्वदेशी भोजन हो, स्वदेशी भूषा हो, स्वदेशी संगीत हो, स्वदेशी चिकित्सा हो इत्यादि सभी जगह स्व के महत्व को स्थान दिया गया है। वीर सावरकर ने विदेशी वस्तुओं की होली जलाई, महात्मा गांधी जी ने स्वदेशी के लिए ही नमक सत्याग्रह किया। बाल गंगाधर तिलक स्व संस्कृति को अपनाने के लिए सदैव लोगों को प्रेरित करते रहते थे।
भारतवर्ष लगभग एक हजार वर्षों तक संघर्ष करता रहा उस संघर्ष के पीछे था अपने स्व को बचाना। बाहर से आए आक्रमणकारियों ने भारत के स्व को नष्ट किया जिससे हम पिछड़ते चले गए। मुगलों के आक्रमण ने भारत के मंदिरों को तोड़ा, हमारी संस्कृति को नष्ट किया, हमारे धर्म ग्रन्थ जलाए, हमारी पूजा पद्धति को रोका गया। मुगलों ने माताओं बहनों के साथ बलात्कार जैसे जघन्य अपराध इसी स्व को मिटाने के कारण किया। मुगलों के बाद अंग्रेजों ने भी भारत की संस्कृति, सभ्यता, शिक्षा व्यवस्था पर प्रहार किया। इस्लाम ने हमारे धर्म, दर्शन सबको नष्ट करने का प्रयास किया। फिर ब्रिटिश, फ्रेंच, पुर्तगाली, डच आदि ईसाई आए। पांडिचेरी में फ्रेंच, गोवा में पुर्तगाली शेष भारत में अंग्रेज ईसाई हमारे ‘स्व’ को समाप्त करना चाहते रहे। एक हजार वर्षों के लम्बे संघर्ष और पराधीनता ने हिन्दू समाज को झिंझोड़ दिया, इससे बहुत कुछ नष्ट हो गया ऐसी स्थिति हो गई कि शरीर रहा, साँस रही बस। १५ अगस्त १९४७ को जब भारत स्वतंत्र हुआ तब एक आशा जगी कि अब अंधेरा छट गया है हम स्वाधीन हो गए हैं अब हमारा स्व जागृत होगा, हम स्वाभिमानी होंगे किंतु अफसोस इन एक हजार वर्षों के संघर्ष में हमारे समाज का स्व मर जैसा गया है।
स्वतन्त्रता के आज ७७ वर्ष व्यतीत हो रहे हैं किंतु अभी हमारा समाज पूर्ण स्व को नहीं प्राप्त किया। भारतीय अपनी काल गणना भूल गए, अपनी मातृभाषा पर अभिमान नहीं यहां तक हम अपने परंपराओं को दरकिनार करने लगे, भारत ऋषियों की भूमि यहां सेंटा बनने लगे छोटे बालकों को पैशाचिक वृत्ति वाले सेंटा बनाने लगे, अपना नववर्ष चैत्रशुक्ल प्रतिपदा भूल कर ईसाई नया साल एक जनवरी मनाने लगे। अरे भारतीयों कुछ तो शर्म करो अपने महान पूर्वजों को पहचानो जिन्होंने बलिदान होना स्वीकार किया किन्तु इस्लाम की टोपी नहीं पहनी, मर गए पर ईसा मसीह के सामने झुके नहीं और हे भारतीयों तुम सेंटा बनते हो, मजार जाते हो, ईसाई नववर्ष मनाते हो। अपने स्व को पहचानो अपने जीवन से गुलामी के चिह्न को बाहर करो। योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि “स्वधर्मे निधनं श्रेयः” अपने धर्म में मर जाना श्रेष्ठ है किन्तु दूसरे के पंथ को नहीं अपनाना यही स्व है। स्व हमारे स्वाभिमान को जागृत करता है। मनुष्य की चेतना का जागरण उसके भीतर स्थित, उसका ‘स्व’ है हमको अपने जीवन में स्व के मानबिन्दुओं को स्थापित करना चाहिए जैसे स्वभाषा, स्वदेशी, स्व संस्कृति इत्यादि। व्यक्ति की चेतना पर पड़े हुए औपनिवेशिक गुलामी के आवरण को स्वदेशी आचरण से ही दूर किया जा सकता है।
— बाल भास्कर मिश्र