कविता

चार दिन की जिंदगी

जीवन क्या है रास्तों पर भटकता राही,
यहाँ सराय में ठहरा मुसाफिर
चार दिन की जिंदगी,
चार कंधों पर यूँ ही चले जाना है।

कोई कभी भी किसी के लिए नहीं रुका,
यह बहता हुआ पानी अविरल बहता रहता है
सुख-दु:ख उतार-चढ़ाव सहता रहता है,
पर सब भूल जाता है कि चार दिन की जिंदगी है।

लाख अंधेरों में रहने बाले तू डर मत,
एक उम्मीद की किरण से प्रकाश प्रफुल्लित होगा
उजियारों से जीवन आगे बढ़ेगा,
चार दिन की जिंदगी चार कंधों पर यूँ ही चले जाना है।

क्रोध, माया, लोभ, घमंड के साथ तू मत उलझ,
यह सब मिथ्या है यही रह जाएगा
तेरे मीठे बोल दुनिया याद रखेगी,
चार दिन की ज़िंदगी, बाकी सब यहीं रह जाएगा।

आज भागता फिर रहा तू इंसान
अपने मूल फ़र्ज़ को भुलाए,
संसार के बंधनों में बंध भटकता है।
एक दिन राख हो जाएगा, चार दिन की जिंदगी है
चार कंधों पर यूँ ही चले जाना है…॥

— हरिहर सिंह चौहान

हरिहर सिंह चौहान

जबरी बाग नसिया इन्दौर मध्यप्रदेश 452001 मोबाइल 9826084157

Leave a Reply