कृपया उचित दूरी बनाए रखें!
आरंभ में ही मैं ये बात स्पष्ट कर देना अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूँ कि मैं देश का एक सच्चा और ज़िम्मेदार नागरिक हूँ। और अब मेरे बाद कोई भी वैसा होने का दावा ना करे, वरना मैं उस पर मानहानि का दावा ठोक दूँगा। इस सबके मद्देनज़र ही मैं कहना चाहूँगा कि देश के राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण में ट्रकों का बड़ा योगदान है। जैसे गन्ने के पेमेंट का किसान की बेटी के ब्याह में विशेष महत्त्व है। किसी भी क़ीमत पर इसे नकारा नहीं जा सकता। बल्कि मैं तो कहता हूँ कि जो इस सत्य को नकारते हैं वे देश के ‘सच्चे और ज़िम्मेदार’ नागरिक नहीं कहे जा सकते।
जैसा कि इतिहास गवाह है; नागरिकशास्त्र हमें नागरिक बनने की शिक्षा देता है। एक बार हमारे मास्टरजी ने बताया था कि संसार के सभी विषय परस्पर जुड़े हुए हैं। विज्ञान और नागरिकशास्त्र भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। यानी नागरिकशास्त्र कहता है अच्छे नागरिक बनो और विज्ञान ने हमें ट्रक बनाकर दिया। दरअसल बात चली थी ट्रकों के राष्ट्रीय महत्त्व को लेकर और मैं ट्रक की ही गति से नागरिकशास्त्र पर आ गया। ऐसा हुआ ही इसलिए क्योंकि ट्रक बहुत महान सवारी है। हमारे देश की सभी ललित कलाओं की परिणति ट्रक में पाई जाती है। कुछ लोगों के लिए वह केवल एक गुड्स कैरियर है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। हमारे प्राचीन साहित्य में चौंसठ विद्याओं और सोलह कलाओं की चर्चा की गई है। संगीत, चित्रकला, कविता (कुछ लोग जिसे शायरी भी कहते हैं) आदि इसी श्रेणी में आती हैं। ट्रकों के साथ संगीत का तो कुछ ऐसा संबंध है कि भारत के सुगम, शास्त्रीय और लोक संगीत के सारे फ़ाॅरमैट इसी एक वाहन में सर्वसुलभ हो जाते हैं। सहगल से लेकर हनी सिंह तक सारे महान गायक जितने प्रेम के साथ ट्रकों में बजाए जाते हैं वैसे तो ख़ुद उनके घरवालों ने भी उन्हें नहीं सुना होगा ! एक दौर था जब कुमार सानू और अलताफ़ राजा बंबई से ज़्यादा ट्रकों में बैठकर गाया करते थे।
और भाईसाब लोक संगीत का तो कहना ही क्या ! आप कलकत्ते से अमृतसर वाले ग्रांड ट्रक रोड पर निकल जाइए, लगभग सारे ही उत्तर भारत को जान जाएँगे। हर गाँव, शहर, क़स्बे के वीर युवक ट्रक चलाते हुए मिलेंगे और अपनी एथनिक क़िस्म की सांस्कृतिक विरासत को ट्रकों में बजाते हुए भागे चले जा रहे होंगे। हिन्दी भाषा को इतना लोकप्रिय तो इसके कवियों-लेखकों ने भी नहीं बनाया जितना कि इन ट्रकों में बजने वाले विविध बोली–भाषा के स्थानीय गीतों ने बनाया है।
कौरवी, बिहारी, अवधी, बुन्देली, ब्रज,हरियाणवी, राजस्थानी, पहाड़ी आदि सारे वर्गों की हिन्दी-बोलियाँ अपनी राजसी भव्यता के साथ इन ट्रकों के साथ देशभर की यात्राएँ करती रहती हैं। शेष भारत की सारी भाषाएँ और रीजनल बोलियाँ भी इसी तर्ज़ पर राष्ट्र-भ्रमण पर रहती हैं। और दिलकटे-दिलजले क़िस्म के जैसे गाने ये ट्रक वाले बजाते हैं, उन्हें सुनकर तो सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इनके दिलों में सारे देश का दर्द छुपा है। ये अलग बात है कि इनकी सगी और परमानेंट बीवी इनके अपने घरों में रहती है लेकिन फिर भी ये नवयुवक ना जाने किस महबूबा की तलाश में रहते हैं।
मेरठी गन्ना, कश्मीरी सेब, मद्रासी मसाले, पंजाबी गेहूँ, असमिया चाय और बंगाली जूट के साथ-साथ विदेशी हथियार, नशीले पदार्थ, तस्करी के सोने-हीरे-चन्दन-हाथी दाँत आदि सब तुच्छ वस्तुएँ इन्हीं के योग्य हाथों से होते हुए अपने उचित ठिकानों पर सही-सलामत पहुँच जाती हैं। कला-संस्कृति के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को भी इनके मार्फ़त काफ़ी गति मिली है जिसके लिए मैं निजी तौर पर इनका आभारी (भरकम) हूँ।
चित्रकला के मामले में तो इन ट्रकों का ऐसा है कि पिकासो या राजा रवि वर्मा से लेकर एम. एफ़. हुसैन और संदीप राशिनकर तक, सब इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत, अर्थात् सारा ही भारत हमारे ट्रकों के आगे-पीछे या साइड में अपनी पूरी रंगत के साथ उभरकर सामने आता है। ऐतिहासिक या मॉडर्न पेंटिंग का कोई ऐसा ढंग नहीं जो यहाँ ना मिलता हो। बल्कि कई बार तो वे पात्र उन चित्रों से बाहर निकलकर सक्रिय भी हो जाते हैं और प्रेम के सात्विक वितरण में उचित सहयोग देते हैं। अलबत्ता कभी-कभी आधुनिक अतुकांत क़िस्म की हिन्दी-कविताओं की तरह वह किसी को समझ में ना आए तो इसमें राजू पेंटर की कोई ग़लती नहीं मानी जा सकती।
और कविता ? अए हए ! क्या कहने ! वीरगाथा-काल से लेकर ‛मॉडर्न’ क़िस्म के आधुनिक काल तक सब प्रकार के काव्य-लक्षण यहाँ सुलभ शौचालय की तरह बहुतायत से उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसी-ऐसी कविताएँ ट्रकों पर लिखी मिलती हैं कि अनायास ही उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है और लिखने वाले की क़लम को चूम लेने का मन करता है। साहित्य के ‛कुरुक्षेत्र’ में पाए जाने वाले विविध प्रकार के वाद, विवाद, प्रगतिवाद, स्वाद, मवाद आदि सब यहाँ अपने मुखर रूप में सहज ही दृष्टिगोचर होते हैं।
इधर कुछ ज्ञाताओं ने अफ़वाह फैला रखी है कि साहित्य समाज का दर्पण है। अगर वाकई ऐसा है तो मुझे इसके लिए ट्रकों से अच्छा कोई विज्ञापक नहीं मिला। उदाहरण के रूप में आप दहेज़ का मामला ले सकते हैं। लड़की के माता-पिता को कभी इतनी चिंता अपनी लड़की की भी नहीं रही जितनी कि उसके ब्याह की। इसके मूल में रहा है लड़की के लिए एक दूल्हा नामक प्राणी प्राप्त करने के एवज़ में दिया जाने वाला दहेज़ नामक आशीर्वाद। कुछ भले मानुषों द्वारा इस दहेज़ की पवित्र प्रथा को अति प्रोत्साहन देने के कारण सरकारों को इसके विरोध का ज़िम्मा स्वयं ही उठाना पड़ा और इसके लिए सबसे अच्छा साधन पाया गया राष्ट्रीय वाहन ट्रक। फिर तो धड़ल्ले से देशभर में एक ही सूक्तिवाक्य गूँज उठा – ‘दुल्हन ही दहेज़ है !’ मज़े की बात यह रही कि इस ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ को पढ़ते ही लोगों को बोध हुआ कि हो न हो, ये दहेज़ कोई दैवीय वस्तु है जिसका कि कन्या के ससुराल पक्ष को दिया जाना अनिवार्य है। इसी का सुपरिणाम रहा कि कहीं-कहीं लड़कियाँ पूरी श्रद्धा से जलाई जाती रहीं।
इसके अलावा मैं एक और बहुत बड़ा योगदान ट्रकों का मानता हूँ। ये है — प्रजावत्सल प्रजा द्वारा निरंतर प्रजा-वृद्धि। लेकिन जैसे ही हमारी कर्मठ सरकारों ने देखा कि उनकी सुयोग्य प्रजा ने यह महान कर्तव्य कुछ ज़्यादा ही कर्मठता से निभाना शुरू कर दिया है, तभी सरकारी स्तर पर इसके लिए ठोस क़दम उठाए गए।
हमेशा की तरह फिर यह महान ज़िम्मेदारी ट्रकों के दशम् स्कंधों पर डाली गई। फिर तो उद्धव जी की तरह इस तरह के ऐतिहासिक संदेश पूरे देश में प्रसारित किए जाने लगे — ‘बच्चे दो ही अच्छे, हम दो हमारे दो, छोटा परिवार-सुखी परिवार’ आदि।
और बेटी को बचाकर रखने और फिर पढ़ाने की शिक्षा इतनी अच्छी तो मोदी-सरकार ने भी नहीं दी, जितनी कि ट्रक वाले बंधुओं ने। जिसे देखो वही बेटियों को पढ़ाने पर आमादा नज़र आता है। यह बात अलग है कि पढ़ाने के लिए उनको बचाना ज़रूरी है और वे बचेंगी तब, जबकि उनकी माताएँ पढ़ी-लिखी होंगी। बस एक छोटी-सी समस्या यह और रह जाती है कि हर माँ भी किसी ग़रीब की बेटी ही होती है।
जो लोग समझते हैं कि देशभक्ति का अर्थ केवल मनोज कुमार की पुरानी फ़िल्में देखना मात्र है, मैं उनको बताना चाहूँगा कि वे ग़लत हैं। इस राष्ट्रीय वाहन से मिलिए और आपके विचार निश्चय ही बादल जाएँगे। देश-प्रेम की इस परम-पवित्र भावना को हमारे प्यारे ट्रकों ने ही सबसे सुंदरता एवं कर्मठता के साथ प्रस्तुत किया है। राजभाषा अंग्रेज़ी में पहली बार जनता को इन्होंने ही तो बताया है कि भारत को प्यार करने का असली मज़ा ‛आई लव माई इंडिया’ से ही आता है। यह कितने हर्ष का विषय है कि ‛अपनी बोली-अपना देस’ के साथ हम अंतर्राष्ट्रीय भाषा-साहित्य का भी ध्यान रखते हैं। हालाँकि करोड़ों सच्चे भारतीयों की तरह ट्रक भी क्षेत्रवाद से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। इन्हें देखकर देश के सभी राज्यों का ही नहीं बल्कि उतने ही छोटे-मोटे हिंदुस्तानों का भी दर्शन हो जाता है। मद्रास में मेरठ या हरियाणा-पंजाब और पूरब में तमिलनाडु देखना हो या गुवाहाटी में गुजरात और कच्छ में काजीरंगा, तो ट्रक से अच्छा कोई नहीं।
चूँकि इस देश में होने वाली कोई भी ज्ञान-चर्चा जाति के बिना पूरी नहीं हो सकती इसलिए इस विषय में भी ट्रक महाराज शुद्ध भारतीय ही साबित होते हैं। करोड़ों तरह की जातियों, उपजातियों, समाजों, परम्पराओं आदि को सीना ठोंककर सड़कों पर बताते फिरने की समाज-सेवा ये महाशय जितनी श्रद्धा से करते हैं, वह भी परम आदरणीय है।
भारतवर्ष के प्रत्येक ट्रक पर अनिवार्य रूप से पाई जाने वाली ‛बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’ की दार्शनिक चेतावनी से तो शायद ही कोई अपरिचित हो ! ट्रकों की इस गंभीर वाणी का मुझ पर तो तत्काल प्रभाव यह पड़ा है कि मैंने तो साहित्य पढ़ने और ‛सुमुखी-सुदर्शन’ के अलावा सारे ऐब छोड़ दिए हैं। भगवान ने चाहा तो इनमें से पहले वाला भी जल्दी ही जाता रहेगा। दूसरे के विषय में अलबत्ता मैं इतना ही कहूँगा कि ‛होइ है वही जो राम रचि राखा, क्यों चलि ट्रक बढ़ावै साखा’। वैसे मैंने ऐसे भी दिलदार ट्रक-ड्राइवर देखे हैं जो ना पाप से डरते हैं और ना ही पापी से। उनका तो यही कहना होता है कि बुरी नज़र वाले, तेरा भी भला। जा सिमरन जी ले अपनी ज़िंदगी ! तुझको सुखी संसार मिले !
हरि अनंत, हरि-कथा अनंता की तर्ज़ पर बस यही कहा जा सकता है कि ट्रक अनंत, ट्रक-कथा अनंता ! सच तो यह है कि सारी बातों के बावजूद वही अंतिम सत्य बन गया है जो इस लेख के सबसे अंत में लिखा हुआ मिलने वाला है।
अब अगर मैं अपनी बात करूँ तो मैं उपरोक्त सारे मुद्दों के अलावा ट्रकों की जिस बात से सबसे ज़्यादा प्रभावित हूँ वह बी.एड. से संबंध रखती है। इस कोर्स के दौरान एक अजीब ही तरह का विषय आता है – मनोविज्ञान। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह मन से जुड़ा हुआ है। हालाँकि मैंने इस विषय को गंभीरता से तब लिया जब कुछ ‘मुहब्बत’ भरे अनुभव हुए। वैसे भी जीवन, अनुभवों का ही दूसरा नाम है और प्रेम ही जीवन है। लेकिन मैंने ट्रकों से बात शुरु की थी, इसलिए साहित्यशास्त्र की गरिमा इसी में है कि बात का अंत भी ट्रकों से ही किया जाए। छोटे हाथियों से लेकर दस टायरों वाले विशालकाय ट्रकों तक, सबने मुझे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण पाठ सिखाया है। जीवन के प्रत्येक संबंध, यारी-दोस्ती, आपसदारी, समाज, नौकरी, मन की बातें, प्यार-मुहब्बत आदि आदि सब में सबसे ज़्यादा काम आने वाला जो ज्ञान है, वो इस ट्रक नामक दैवीय वाहन से ही प्राप्त हुआ है। कल्पना कीजिए कि आप अपनी मोटरसाइकिल या कार में भागे जा रहे हैं और पूरी कोशिश में हैं कि इसी बहाने देश की जनसंख्या में कुछ कमी कर दें, तभी साइड से गुज़रते हुए गन्नों से लदा हुआ एक लंबा-सा ट्रक आपके आगे आ जाता है। पूरी ईमानदारी से आप ब्रेक लगाते हैं और उसके पीछे लिखे हुए एक आप्तवाक्य को घबराते हुए पढ़ जाते हैं — कृपया उचित दूरी बनाए रखें !
— सागर तोमर