स्मार्ट फोन : एक आधुनिक उपकरण या एक सामाजिक बीमारी?*
युवाओं में बढ़ती हुई नशे की लत को लेकर हम अक्सर चिंतित रहते हैं, चूंकि समाज के निर्माण में युवाओं की विशेष भूमिका होती है, इसलिए यह चिंता करना स्वाभाविक है। लेकिन हमें इस बात की ओर ध्यान देने कि विशेष जरूरत है कि आज युवाओं का अधिकतर समय किस कार्य में ज्यादा व्यतीत हो रहा है? क्या सिगरेट, शराब व अन्य मादक पदार्थ ही वे कारक हैं जो उन्हें पथभष्ट कर रहे है या कुछ और? जितना अजीब यह सवाल है उतना ही चौकाने वाला इसका जवाब भी है। आज ज्यादातर युवा किसी नशीले पदार्थ के आदि नहीं है बल्कि वे एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के आदि होते जा रहे हैं जिसे हम मोबाइल अथवा समार्ट फोन के नाम से जानते हैं। कई बुद्धिजीवी लोग इसे आधुनिकीकरण का नाम देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। परन्तु यह एक सामाजिक समस्या बनती जा रही है। चिंता का विषय यह है कि प्रौद्योगिकीय विकास के नाम पर हम अपने समाज को किस दिशा में ले जा रहे हैं। शारीरिक खेल-कूद को हमने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में समेट दिया है,इससे युवा पीढ़ी के सर्वांगीण विकास पर दुष्प्रभाव पड़ना कोई हैरान करने वाली वात नहीं है।
आज घर से सुबह निकलते समय हमें इस बात की विशेष चिंता होती है कि हमारे फोन की बैटरी पूरी तरह से चार्ज है या नहीं। इसके अलावा इन्टरनेट पैक का होना भी अत्यधिक जरुरी महसूस होने लग गया है। आज मोबाइल फोन एक विलासिता की वस्तु न रह कर हमारी जरुरत बन गया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज मोबाइल फोन हमारी जिन्दगी का एक अभिन्न अंग बन चुका है। एक मोबाइल फोन हमें यह एहसास दिलाता है कि हम अपना सारा सामाजिक दायरा अपने हाथ में लिए घूम रहे हैं। शायद हम पूरी दुनियाँ को तो एक उपकरण में समेटते जा रहे है परन्तु अपने आस-पास के लोगों से कटते जा रहे हैं।
यह बात सच है कि मोबाइल से बैंकिंग, इ-लर्निंग, इ-शॉपिंग, इ-बिल पेमेंट जैसी सुविधाएँ हमारा बहुत-सा कीमती समय बचाती है परन्तु सोशल मीडिया जैरो फेसबुक, व्हाट्स एप, इन्स्टाग्राम एवं ट्विटर (जिसे आजकल X के नाम से जानते है )जैसी कई ऐसी एप्स है जो हमारा कई गुना कीमती समय बर्बाद कर रही है। टेलिकॉम कंपनियां इस बात को भली-भाँति समझती है कि समय ही पल है, इसीलिए वे हमारा ज्यादा से ज्यादा समय मोबाइल पर इन्टरनेट के प्रयोग के जरिये पैसों में परिवर्तित करती है। जितना समय हम अपने स्मार्ट फोन पर इन्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं, उतना ही पैसा टेलिकॉम कंपनियों कमाती हैं। देखा जाए तो अनजाने में हम अपने वातावरण एवं स्वस्थ सामाजिक जीवन को दांव पर लगा रहे हैं। आज हर युवा ज्यादा से ज्यादा टाइम ऑनलाइन रहना चाहता है ताकि वे अपने दोस्त-मित्रों के साथ हर पल संपर्क बनाये रख सके। परन्तु बहुत से मनोवैज्ञानिक शोध इस बात की और संकेत करते हैं कि स्मार्ट फोन के जरिये लगातार अपने मैत्रिक संबंधों को बनाये रखने वाले युवा अवसर भावनात्मक असंतुलन, कम आत्म-विश्वास, सामाजिक अलगाव और असुरक्षा के शिकार होते हैं। इस विषय पर कार्य कर रहे कुछ शोधकर्ताओं ने इसे “तकनीकी लत” का नाम देते हुए यह पाया कि जिस तरह के लक्षण एक युवा में सिगरेट, शराब या नशीली दवा न मिलने पर देखने को मिलते हैं, वैसे ही लक्षण स्मार्ट फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करने वाले को फोन न होने पर भी देखे जा सकते हैं। कई शोध इस बात को भी सावित करते हैं कि अपनी क्लास के दौरान मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने वाले छात्रों के प्रदर्शन पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ता है। आई.आई.टी. मुम्बई के एक बरिष्ठ प्रोफेसर एवं शोधकर्ता डाक्टर गिरीश कुमार ने मोबाइल फोन को “इक्कीसवीं सदी की सिगरेट” की संज्ञा दी है। उनके अनुसार मोबाइल और सिगरेट दोनों वातावरण एवं जीवन के अस्तित्य के लिए गंभीर खतरा हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि सिगरेट का प्रदूषण देखा जा सकता है लेकिन मोबाइल विकिरणों द्वारा जो छिपा हुआ प्रदूषण हो रहा है उसे हम देख नहीं सकते। मोवाइल फोन का तर्कहीन प्रयोग कैंसर जैसी जानलेवा बिमारियों को न्योता देना है।
तथ्य एवं शोध इस बात की ओर साफ इशारा कर रहे हैं कि युवाओं द्वारा किया जाने वाले मोबाइल फोनो का अत्यधिक इस्तेमाल उनके निजी एवं सामाजिक जीवन, दोनों के लिए खतरा है। परन्तु मुसीबत यह है मोबाइल का उपयोग सामाजिक रूप से स्वीकार्य है इससे इस लत का पता लग पाना और भी मुश्किल है। यह तय कर पाना अत्यंत मुश्किल है कि कब मोबाइल उपयोग एक लत में बदल जाता है। आज जरूरत है हर जिम्मेदार नागरिक को जागरूक होने की ताकि समय रहते इस समस्या का हल खोजा जा सके और मोबाईल फोन का सतत इस्तेमाल करते हुए हमारे भविष्य के नागरिक सूचना एवं प्रौद्योगिकी का सही इस्तेमाल क हुए सफलता की सीढ़ी चढ़े।
— संतोष कुमार चौरसिया