कविता

पल भर

ये कैसा गुनाह है, अगर कभी हम
चेहरे पर नक़ाब सजाएं?
झूठे किस्सों का बुनना, अफ़साने गढ़ना,
क्यों ये जुर्म ठहराएं?
क्या हम सब मोहब्बत के प्यासे नहीं?

ज़ख़्मों को पर्दों में छुपाएं,
बे-ज़रर बातें सुनाएं;
अगर ये सब हमें प्यार दिलाएं,
तो आखिर इसमें क्या बुराई है?
कुछ भी तो नहीं रहता हमेशा,
सब फ़ना है, सब आरज़ी।
तो क्यों न हम वो खुशियाँ लूट लें
जो पलभर की हों, चाहे काग़ज़ी।

एक लम्हा जो राहत मिल सके,
क्यों न उन घड़ियों को छीन लें हम?
जैसा भी हो, जैसे भी हो,
क्यों न बस उन्हें संग जी लें हम?

— नीलाक्षी साहु

नीलाक्षी साहु

लखनऊ

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