पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा – ‘एक अकेला पहिया’ : जीवन की समझ लिए नवगीत

हिंदी नवगीत के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने वाले कवि डॉ. अवनीश सिंह चौहान का सद्यः प्रकाशित संग्रह— ‘एक अकेला पहिया’ पाठकों की उम्मीद पर खरा उतरता है। इससे पहले आपने ‘टुकड़ा कागज़ का’ नवगीत संग्रह पाठकों के हाथों में सौंपा था, जो काफी सराहनीय रहा है।

‘एक अकेला पहिया’ की भूमिका लिखते हुए प्रख्यात नवगीतकार वीरेंद्र आस्तिक कहते हैं— “साहित्य-जगत में डॉ अवनीश सिंह चौहान एक प्रतिष्ठित नवगीतकार हैं। वे हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं के प्रख्यात लेखक और इन दोनों भाषाओं की आभासी दुनिया और प्रिंट मीडिया के जागरूक संपादक हैं। यहाँ यह भी बताना चाहूँगा कि वे आभासी दुनिया में नवगीत की स्थापना करने वाले उन्नायकों में अग्रपांत रहे हैं। यद्यपि आपका नवगीतीय अवदान बहुत अधिक नहीं है, किंतु जो है उसकी सुगंध देश की सीमाओं से बाहर निकलकर वैश्विक हो गई है— विश्व स्तर पर आपके हिन्दी और अंग्रेजी भाषी पाठकों की संख्या लाखों में है” (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 7)।

इस संग्रह के नवगीतों में जीवन और समाज के विविध विषयों पर नवगीतकार डॉ चौहान की सोच और उनकी भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। ‘मन का पौधा’ में आपने मन के नानाविध रूपों और भावों की परख की है; जैसे पौधे के सही फलन और विकास के लिए उसकी कांट-छांट अपेक्षित है, वैसे ही आपने मन को नियंत्रित करने की बात कही है। आपका ‘कितने मन है’ नवगीत मन से संवाद करने में सक्षम है। मनुष्य का मन उसे नियंत्रित करता है। उसकी इच्छाएँ, कामनाएँ, आशा-निराशा, प्राप्ति-बिछुड़न, सभी भाव इस मन की उपज है, मन में पनपती हैं और मन को प्रभावित करतीं हैं। मन की अलग-अलग परतों को उकेरती पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं—

मन के भीतर कितने मन हैं
कौन अधिक है सबसे सुन्दर
आसमान से जग को देखा
निराकार भी दिखता मनहर

खोज रहा है पुरुष प्रकृति को
अद्भुत मन का रोग लगा है। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 30)

आपका नवगीत ‘ये बंजारे’ सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। इसमें मेहनतकश मजदूर की जद्दोजहद की कहानी दर्ज है। इसमें रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जी-तोड़ श्रम करने वाले श्रमिक की स्वेद-बूंदों और पसीने से नहाई देह की तकलीफ बयान की गई है। लोहे की भट्टी में आग के सामने अपना रक्त जलाने वाली तपती देह की व्यंजना मार्मिक है—

ये बंजारे मारे-मारे
फिरते रहते गली-गली

भट्टी जलती, लोहा तपता
लाल रंग जीवन पर चढ़ता

श्रम औ’ रोटी के रिश्ते का
धर्म निहाई एक बली। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 30)

आपकी कलम आशा की किरण उजागर करती हुई ‘कोरोना का डर’ में कहती है कि हमें साहस के साथ सावधानीपूर्वक बाहर निकलना होगा, क्योंकि कोरोना के डर ने हमें घर में दुबककर रहने पर बाध्य किया है। इस डर को जीतना होगा, अन्यथा हम कभी जीवन में आगे नहीं बढ़ पाएंगे— “कोरोना का डर है, लेकिन—/ डर-सी कोई बात नहीं” (77) और “सूरज निकलेगा पूरब में / होगी फिर से प्रात वही” (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 78)।

यह समाज स्वार्थी और आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। इससे दुखी होकर नवगीतकार ‘नया वर्ष’ नवगीत रचता है, जहाँ उसने नए वर्ष के आने पर टीवी-चैनलों द्वारा बीते साल का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की परिपाटी पर तंज कसा है। वह कहना चाहता है कि प्रत्येक नव वर्ष पर सैलानियों की भीड़ मौज-मस्ती करने निकल पड़ती है, तदुपरांत वे लोग वही खटरागी जिंदगी जीने लगते हैं और इस प्रकार वर्ष बीत जाता है। और तब—

‘पोल-नृत्य’ की गहराई में
खोये मन सैलानी
आँखों में कुछ नशा चढ़ा है
खोज रहे हैं पानी

खुश हैं छोटी-सी दुनिया में,
खाया खूब कमाया। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 82)

शिक्षा वर्तमान युग में व्यापार में तब्दील हो चुकी है और शिक्षक व्यापारी बन गए हैं। इस विसंगति पर व्यंग्य करते हुए आप अच्छी तनख्वाह पाने वाले कामचोर व कपटी शिक्षकों को व्यापारी कहते हैं। स्वयं लंबे समय से अध्ययन व अध्यापन में संलग्न होने के कारण डॉ. चौहान ने शिक्षण क्षेत्र में व्याप्त कलुषित व्यावसायिक वृत्ति को करीब से देखा है। आलोच्य गीत में आपने शिक्षकों द्वारा अर्थ के बदले में विद्यार्थियों को उत्तीर्ण करने-कराने के निंदनीय कृत्य को आड़े हाथों लेते हुए लिखा है कि इससे हमारी भावी पीढ़ी शिक्षित होकर मात्र थोथी और अज्ञानी बनी रहेगी—

कहते हैं वे घर पर आओ
ट्यूशन लेकर ज्ञान बढ़ाओ
खर्च करोगे तो बदले में
बिना पढ़े ही नंबर पाओ

स्वारथ में जो रँगे हुए हैं,
कागज, वे अखबारी निकले। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 63)

‘कविवर बड़े नवाब’ में इस कवि ने जोड़-तोड़ कर निरर्थक कविता लिखने वाले कवियों पर कटाक्ष किया है। ऐसे कवि मंचों पर वाह-वाही लूटना जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कैसे कविता छपवायी जाए, कैसे उसका प्रचार-प्रसार हो और कैसे ऐसी कविताओं का काव्य-संग्रह प्रकाशित करवाया जाए। मंचीय कौशल, अभिनय, खुशामद और तिकड़म भिड़ाकर नाम कमाने वाले ढोंगी कवियों की पूरी जमात को इस नवगीत में उघाड़ दिया गया है—

दो-कौड़ी का लेखन फिर भी
कविवर बड़े नवाब

सीढ़ी चढ़ना सीखा, सबकी—
करके जय-जयकार
मंचों पर हो चर्चा उसकी
बातों में हुशियार

भाव, कुभाव, रचे जो भी बस
उसको मिले खिताब। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 59)

देश में भाषणबाजी करने वाले नेताओं की भीड़ लगी हुई है। इनमें से कई नेताओं द्वारा मंचों पर झूठ प्रचारित किया जा रहा है। कई बार ये लोग संविधान का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। निम्न वर्ग के शोषण और भ्रष्टाचार से उपजी इनकी संपत्ति के आंकड़े अचंभित करने वाले हैं। इन सब पर डॉ चौहान की नजर है। आपके नवगीत सामाजिक क्रांति के अभिलाषी हैं। ये शिव-सुंदर के आकांक्षी हैं। इसलिए ‘कुछ शुभम करो’ गीत में आपने धर्म-पथ का अनुगमन करते हुए गंभीरतापूर्वक कर्मरत होने की प्रेरणा दी है। आपने पथ की बाधाओं का सामना करते हुए उत्पीड़न के विरुद्ध स्वर बुलंद किया है।

प्रकृति वर्षा ऋतु में अपना मनोरम रूप धारण करती है। आपका ‘गगन में बदरा’ बड़ा प्यारा नवगीत है, जिसमें बारिश की फुहार, बादल का सूरज से आंख मिचौली खेलना, जनमानस का मग्न होकर कजरी गाना, बारहमासी गाना, पुरवइया की थिरकन, बिजली का ज़ोर से कड़कना, धरती से हरियाली का फूटना तथा फसल उगने के दृश्य साकार किए गए हैं। लेकिन नवगीतकार डॉ.चौहान मानते हैं कि यह बारिश केवल खेतों व धरा को नवजीवन नहीं देती, बल्कि यह मानव मन को भी नई उम्मीदों और आशाओं से भरना सिखाती है जिससे उसका वर्तमान और भविष्य संवर जाए। वर्षा के बाद धूप का स्वागत करने में भी आपके नवगीत पीछे नहीं रहते। प्रकृति के सौंदर्य पर आधारित आपके नवगीतों में धूप खिलती-मुस्कुराती हुई आती है—

मंगल वर्षा करने वाली
धूप आँगने आई

सोया था इकतारा मन की
किसी गुफा में कब से
चाह रहा था खुलना-खिलना
वह तो अपने ढब से

बड़े दिनों के बाद आज फिर
दी झनकार सुनाई। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 89)

प्राकृतिक समृद्धि को आप अमराई की महक, प्यार, सौंदर्य, खुशबू, कोयल की कूक, पेड़ों की हरियाली आदि के माध्यम से भी प्रदर्शित करते हैं— “कानों को कोयलिया—/ के स्वर पड़े सुनाई/ महक उठी अमराई” और “आधे घूँघट चंद्रिमा जले/ छूने को मन-सागर उछले/ बहक गई पुरवाई/ महक उठी अमराई” (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 91)। आपके नवगीतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रकृति-केंद्रित अलंकारों का सौंदर्य भी मन को आह्लादित कर देता है, जैसे— “झरना झरता/ झर-झर, झर-झर,/ कल-कल करती नदिया” (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 33)।

नवगीतकार अवनीश मानते हैं कि प्रेम शाश्वत है, चिरंतन है। इसलिए उन्होंने ‘ढाई आखर’, ‘प्यार हो गया सुविधावादी’, ‘किन्तु न तुम आये’ जैसे नवगीत रचकर प्रेम के बदलते स्वरूप व समय के अनुसार प्रेमियों के बदलते बर्ताव पर अपने विचार साझा किए हैं। आप मानते हैं कि प्रेम के ढाई आखर जीवन को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। इस ढाई आखर का विस्तार ऐसा कि जो व्यक्ति कागज पर लिखी भाषा नहीं समझ सकता, वह भी “हिय की भाषा पढ़ लेता है” (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 99), उसका अनुगमन कर लेता है। प्रेम- पथ पर चलने वाले कठिन से कठिन डगर पर अपना सफर तय कर लेते हैं, क्योंकि नवगीतकार के अनुसार प्रेम उन्हें साहस, ढाढ़स और धैर्य देता है। लेकिन नवगीतकार इस बात से चिंतित है कि आज का प्यार सुविधावादी हो गया है। आज लैला-मजनू जैसी निष्ठा और समर्पण का अभाव दिखता है। आज प्रेम ने तर्क का रूप धारण कर लिया है, जहाँ पर लंबी बहसें होती हैं और आस्था में दरार आ जाती है। आपने ‘प्रेम भाव की रजधानी’ शीर्षक से बहुत सुन्दर प्रेम गीत रचा है, जहाँ प्रेम के मनभावन रूप का वर्णन अविस्मरणीय है—

वृन्दावन, नव वृन्दावन है
प्रेम-भाव की रजधानी

प्रेम यहाँ का गहरी नदिया
प्रकृति यहाँ की मनभावन
लोग यहाँ के निश्छल-निश्छल
भक्त यहाँ के दर्पण-दर्पण

वर्तमान को रोज जगाती
संतों की चेतन वाणी। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 109)

उपरोक्त प्रेम-कथा आपने वृंदावन को केंद्र में रखकर रची है, क्योंकि कृष्ण की इस नगरी को आप प्रेम की नगरी मानते हैं। इसी प्रकार आपने अपने एक नवगीत में ‘बरसाने की होली’ का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है— “दिखे अनौखी आभा आली/ बरसाने की होली में।/ बजे नगाड़े ढम-ढम-ढम-ढम/ चूड़ी खनके, पायल छम-छम/ भँजीं पीठ पर नेह-लाठियाँ/ उड़े गुलाल चमक चम-चम-चम/ ब्रजवासिन की सुनें गालियाँ/ ब्रज की मीठी बोली में” (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 103)।

आपने अपने नवगीत ‘अपनी धरती वृन्दावन’ में वृन्दावन की कुंज-गलियों को रेखांकित करते हुए माखनचोर गोपाल की लीलाओं में रमने वाले ब्रजवासियों तथा रसिक-जनों के प्रेम-भाव को दर्शाया है। वृंदावन की धरती राग (संगीत), रंग (सुंदरता), रस (आनंद) और गंध (पवित्रता) से भरपूर है। यहाँ सुबह होते ही मंदिर जीवंत हो जाते हैं, दीप जलाए जाते हैं, और पूजा-अर्चना की जाती है, ब्रजवासी और भक्तजन ‘राधे-राधे’ कहकर एक-दूसरे का अभिनन्दन करते हैं, साँस-साँस में कृष्ण की चेतना विद्यमान है और भजन की धुनें अंदर और बाहर दोनों ओर गूंजती हैं—

राग, रंग, रस, गंधमयी है
अपनी धरती वृंदावन

सुबह हुई तो मंदिर जागे
दीप-दान, पूजा, अर्चन
राधे-राधे कह सब करते
इक-दूजे का अभिवादन

साँस-साँस में कृष्ण-चेतना
भीतर-बाहर चले भजन। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 107)

इसी प्रकार ‘कहाँ मिलोगे’ शीर्षक नवगीत में आपने उस वंशीवाले को ढूंढने की ललक प्रस्तुत की है। आप उसे ढूंढ रहे हैं— कभी वृंदावन में तो कभी यमुना के जल में और चाहते हैं कि वह बांसुरीवाला आपके अंतर में रहे और आपको इसकी अनुभूति होती रहे। आपके शब्दों में—

वंशीवाले, कहाँ मिलोगे,
क्या तुम वृन्दावन में?

तुम परिपूर्ण, प्राप्य तुम हो,
तुम पर कलम चलाऊँ
शब्द-शब्द को गूंथ-गूंथ कर
गीत तिहारे गाऊँ

बंद आँख खुल जाए, देखूँ—
तुमको ही कण-कण में। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 111-112)

इसी रचना के साथ आपने अपने नवगीत संग्रह— ‘एक अकेला पहिया’ का सुंदर समापन किया है। यह मानना पड़ेगा कि इस संग्रह में परिवार से लेकर समाज, प्रेम से लेकर ईश्वर-भक्ति तक, जीवन और संसार के अनेक पहलुओं को आपने नवगीत की सीमित परिधि में अत्यंत कुशलता से समेटा और सजीव किया है। आपकी भाषा न केवल सरल और सुबोध है, बल्कि उसमें लचीलापन भी है। लयात्मकता को बनाये रखते हुए देशज और विदेशी शब्दों का आपने बहुत ही सटीक और सुसंगत प्रयोग किया है।इसमें आलंकारिकता का कोई अभाव नहीं है। यह संग्रह सहज ही पाठकों को प्रभावित करने में सक्षम हैं। नवगीत विधा में आपकी कलम इसी प्रकार से नई-नई रचनाएँ प्रस्तुत करती रहे और आपकी रचनात्मकता इस विधा को निरंतर समृद्ध करती रहे।

— समीक्षक : डॉ. रेशमी पांडा मुखर्जी

समीक्षक के बारे में :
चर्चित लेखिका डॉ. रेशमी पांडा मुखर्जी वर्तमान में गोखले मेमोरियल गर्ल्स कॉलेज, कोलकाता में एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष (हिंदी) पद पर कार्यरत हैं। चलभाष— 09433675671

समीक्षित पुस्तक : एक अकेला पहिया (नवगीत-संग्रह), ISBN: 978-93553-693-90, कवि : अवनीश सिंह चौहान, प्रकाशन वर्ष : 2024, संस्करण : प्रथम (पेपरबैक), पृष्ठ : 112, मूल्य : रुo 250/-, प्रकाशक : प्रकाश बुक डिपो, बरेली, फोन : 0581-3560114, Available At : AMAZON: CLICK LINK, PBD: CLICK LINK]

डॉ. अवनीश सिंह चौहान

जन्म: 4 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा (उत्तर प्रदेश) में पिता का नाम: श्री प्रहलाद सिंह चौहान माताका नाम: श्रीमती उमा चौहान शिक्षा: अंग्रेज़ी में एम०ए०, एम०फिल० एवं पीएच०डी० और बी०एड० प्रकाशन: राजस्थान पत्रिका, कल्पतरु एक्सप्रेस, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक भाष्कर, डेली न्यूज़, नई दुनिया, जन सन्देश टाइम्स, अमर उजाला, डी एल ए, देशधर्म, उत्तर केसरी, प्रेस-मेन, नये-पुराने, सिटीज़न पावर, अक्षर शिल्पी, सार्थक, उत्तर प्रदेश, सद्भावना दर्पण, साहित्य समीर दस्तक, गोलकोण्डा दर्पण, गर्भनाल, संकल्प रथ, अभिनव प्रसंगवश, नव निकष, परती पलार, साहित्यायन, युग हलचल, यदि, अनंतिम, गुफ़्तगू, परमार्थ, कविता कोश डॉट ऑर्ग, सृजनगाथा डॉट कॉम, अनुभूति डॉट ऑर्ग, ख़बर इण्डिया डॉट कॉम, नव्या डॉट कॉम, अपनी माटी डॉट कॉम, पूर्वाभास डॉट इन, साहित्य शिल्पी डॉट कॉम, हिन्द-युग्म डॉट कॉम, रचनाकार डॉट ऑर्ग, पी4पोएट्री डॉट कॉम, पोयमहण्टर डॉट कॉम, पोएटफ्रीक डॉट कॉम, पोयम्सएबाउट डॉट कॉम आदि हिन्दी व अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, आलेख, समीक्षाएँ, साक्षात्कार, कहानियाँ एवं कविताएँ प्रकाशित। समवेत संकलन: साप्ताहिक पत्र ‘प्रेस मेन’, भोपाल, म०प्र० के ‘युवा गीतकार अंक’ (30 मई, 2009), ‘मुरादाबाद जनपद के प्रतिनिधि रचनाकार’ (2010), 'शब्दायन' (2012), सरस्वती सुमन पत्रिका एवं गीत वसुधा (2013) में गीत-नवगीत संकलित और मेरी शाइन (आयरलेंड) द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ़ वर्ड्स' (2010) एवं डॉ चारुशील द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कवियों का संकलन "एक्जाइल्ड अमंग नेटिव्स" में रचनाएँ संकलित।

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