संस्मरण

उजाले की खोज

आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इसका आशय यह नहीं है कि, मनुष्य जैसा चाहे वैसा आविष्कार कर सकता है। कोई सोचे कि मनुष्य पक्षियों हवाई जहाज की तरह उड़ने लग जाए तो यह एक कोरी कल्पना होगी । मानव सभ्यता संभावनाओं की तलाश करते थे ,अनिवार्य बहुपयोगी ,संसाधनों को जीवनोपयोगी बनाने की जिद्दी स्वभाव ,शोधपूर्ण कार्य उन्हें एक वैज्ञानिक सिद्ध करता था।

प्राकृतिक तौर पर दिन में रोशनी के लिए सृष्टि में सूर्य किरणों की रोशनी विद्यमान तो था, किन्तु रात्रि के लिए मानव निर्मित रोशनी कोसों दूर था । उजाले का सम्बंध ताप और प्रकाश देने वाले आग से शुरू होता है। जिसका आविष्कार प्रागैतिहासिक युग, पूरापाषाण काल आज से 20_25 लाख वर्ष पूर्व का माना जाता है। जिसकी खोज आदिम मानव ने दो पत्थर को आपस में रगड़कर किया था । उस दौर में आग का इस्तेमाल शिकारी जानवरों को भगाने और कच्चे मांस को भूनकर खाने में करते थे । आज आधुनिक युग में आग लगाने और खाना बनाने का माध्यम बदल चुका है।
उपरोक्त संक्षिप्त बातें आग की उत्पत्ति की है ,किंतु हम बात कर रहे हैं उस ज्योति पुँज की जिससे हमारे जीवन में चमत्कारिक ,अद्भुत बदलाव आए । जिसे हमने अपने नग्न आंखों से देखा और समझा है ,उस ज्योति पुँज को अपने-अपने क्षेत्र और प्रांत के अनुसार कुछ भी नाम दे रखे हैं । जैसे _हमारे छत्तीसगढ़ में चिमनी और कण्डील है । अन्य क्षेत्रों में यहीं ढेबरी, लालटेन, प्रदीप, फानूस, लैम्प ,बत्ती या मशाल आदि नाम हो सकते हैं। जब इस ओर आपका ध्यान जाएगा तो एक विलक्षण पल ,अद्भुत दृश्य और बचपन वाला दिन लौट आएगा।
मुझे बेहद अच्छी तरह से मालूम है क्योंकि मेरा गांव बीहड़ ,घनघोर जंगल, बिजली , सड़क से कोसों दूर रहा है । जब सभी आसपास के गाँवों में बिजली पहुंच चुकी थी तब अंत में हमारे गांव में बिजली पहुंची थी।
गाँव में मेरी प्राथमिक शिक्षा चिमनी के सहारे रौशन हुआ । यह चिमनी ,कण्डील केवल मेरे घर में ही नहीं गांव के सभी घरों में प्रकाश का इकलौता प्रमुख माध्यम था । जैसे ही दिन ढलता गांव के लोग इसकी तैयारी में लग जाते थे, इसका निर्माण पुराने खाली शीशी या टीन का छोटा डिब्बा से करते थे। उसके मुंह के ढक्कन को छेदकर कर पुराने साफ कपड़े का बत्ती बना लेते थे, और उसके अंदर मिट्टी का तेल भर देते थे । फिर उसके छिद्र (मुख) को जलती हुई आग से जलाते थे । इस कार्य को कभी-कभी मैं भी स्वयं करता था इसलिए मुझे बखूबी मालूम है।
दूसरा पारदर्शी कण्डील जिसे खरीदकर लाते थे, कण्डील हवा तूफान में सुरक्षित जलता था। तो वही एक भबका (मशाल) ग्रामीणों द्वारा स्वयं निर्मित बांस का रौशनी यंत्र होता था । जिसके भीतर मिट्टी का तेल डालकर बांस के मुखड़े में लम्बा सा पुराना कपड़ा लपेट देते थे और जलाते समय थोड़ा तिरछा रखते थे । प्रायः भबके का इस्तेमाल बड़े जगहों पर किया जाता था।
उन दिनों मिट्टी का तेल राशन दुकान पर मिलता था जिसे लेने के लिए हमारे गांव के लोग 12 किलोमीटर दूर पैदल चलकर जाते थे । घर पर मिट्टी तेल नहीं होने पर उधारी में दूसरे घर से गिलास में नापकर मांगते थे।
मेरे जीवन को प्रकाशित करने का काम इस चिमनी और कण्डील ने किया। चिमनी मेरे लिए एक भगवान है । विद्यालय में तो मेरे गुरुजी शिक्षा दे ही रहे थे किन्तु ,घर में शिक्षा चिमनी की रोशनी से मिलती थी। हमारे पूरे वनांचल ग्राम के लिए चिमनी रात के अंधेरे में उजाले का एकमात्र प्रमुख साधन था। आज के बच्चों को चिमनी की महिमा का पता नहीं है । चिमनी मेरे जीवन का अनमोल हिस्सा रहा है। आज चिमनी, कण्डील, भबका (मशाल ) के स्थान पर नए-नए बिजली के बल्बों ने ले ली है ।
चिमनी महाराज की जय…।।

— मदन मंडावी

मदन मंडावी

ढारा, डोंगरगढ़, छत्तीसगढ़ मो - 7693917210

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