ग़ज़ल
जान अपनों से बचाई है
ये अभी तक की कमाई है
मैं मुक़ाबिल हो नहीं सकता
आपने तक़दीर पाई है
वो बड़े सर्जन किया साबित
तोड़कर हड्डी बिठाई है
वो बड़ा दादा मगर समझे
हाथ में किसकी कलाई है
कौन किसका है समझना है
ज़िन्दगी की ये सचाई है
होंठ पर ठहरी रही बरसों
जो ग़ज़ल मैंने सुनाई है
— डॉ. महेन्द्र अग्रवाल