कविता

बरसती बरखा

बरखा की बूँदें यूँ लगे जिमी मन के भाव रसीले ,
हीरों की लड़ियों से मानो यह बह निकले,
बूँदें तन को छू जाती मनु प्रियतम का हो स्पर्श,
बरखा की बूँदें भरे ज्यों मन में नूतन हर्ष ।

वसुंधरा के अधरों पर कैसे बूँदें छाई देखो?
प्रिय के यौवन ने ली हो, मानो अंगड़ाई देखो,
नव जीवन मिला धरा को, बहोर उसकी काया ,
अमृत वर्षा मेघों ने भी कैसा रंग दिखया ।

पादप भी रंगा गए कुछ हरे, सुनहरे रंगीले,
खिले कुसुम हर डाल डाल लाल, गुलाबी, पीले,
ज्यों इन्द्रधनुष ने मधुमय रंग बिखरे हर्षाए,
रमणीय शोभा की सुगंध हर दिशाओं को महकाए ।

कर देती मन को आल्हादित लगे हर क्षण प्यारा,
वातावरण सजीला लगे रूप प्रकृति का न्यारा,
हुआ गुंजरित भुवन में धरा व्योम का मानो मिलना,
यही सीख मिलती, साथ खिलना साथ पलना।

— वर्षा शिवांशिका

वर्षा शिवांशिका

निवास स्थान : कुवैत । सम्प्रति : विभागाध्यक्षा (हिंदी), सलमिया इंडियन मॉडल स्कूल, कुवैत। शिक्षा :– स्नातकोत्तर, बीएड।

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