यात्रा वृत्तान्त

शौर्य और साहसिक विविधताओं का अनूठा मंथनपात्र: न्यू यॉर्क

वाशिंगटन देखकर हम तीसरे दिन न्यू यॉर्क के लिए निकले। यह 238 मील और साढ़े चार घंटों में बिना रुके तय किया जा सकता था। जब परिवार साथ हो तो रुक-रुककर ही घूमने में आनंद आता है। हमने न्यू जर्सी घूमते हुए जाने का विचार किया। इसकी एक बड़ी वजह तो ‘हिंदी से प्यार है’ के संस्थापक श्री अनूप भार्गव जी से मिलने की रही। उनके आग्रह को टालना असंभव था। उन्हीं से हमें यह मार्गदर्शन मिला कि हम रास्ते में एक छोटा-सा रास्ता काटकर बाल्टिमोर बंदरगाहदेखकर आ सकते हैं। इसकी सुषमा को निहार न्यू जर्सी पहुँचे। अनूप दादा के घर में भोजन किया और आतिथ्य का भरपूर लाभ उठाकर उनके सान्निध्य में ही आगे ‘मिलस्टोन नदी’ तथा विश्वप्रसिद्ध ‘प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी’ देखी।

परिचितों का साथ कुछ घंटों का ही था। शाम की चाय पीकर उनसे विदा ली और न्यू यॉर्क का रास्ता लगाया। यह भी पौने दो घंटे का था। सीधा पहले से बुक कराए हुए निवास पर कार लगाई। तरह-तरह की युक्ति मकान मालिक के द्वारा बताए गए तरीके से आजमाकर कार खड़ी करने के लिए गैराज का दरवाज़ा खुला। वहीं से ही दो कमरे व हॉल वाले इस आवास का रास्ता था।

अगले दिन न्यू यॉर्क घूमने की शुरुआत हमने टाइम्स स्क्वैयर से की। यह यहाँ की सबसे अधिक चर्चित व जीवंत जगह मानी जाती है। गीत-संगीत की तैयारियाँ ज़ोरों पर थीं। सैलानियों का ताँता लगा हुआ था। चारों तरफ़ की खचाखच भीड़ से हमें उत्तेजना के स्थान पर डर अधिक लगा। सुना भी था कि यहाँ पर्समार भी बहुत घूमते हैं जो भीड़ का फायदा उठाकर बटुआ मार ले जाते हैं। हम अपने-अपने पर्सों व मोबाइलों को जत्न से सँभाले जल्दी ही वहाँ से कट लिए और ‘रॉकेफ़ेलर सेंटर’ की तरफ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगे। इसकी चार टिकटें हमने पहले से ही आरक्षित करा रखी थीं। इसके सामने की ओर से तसवीर लेने का मौका न मिला तो पीछे की ओर से लीं और कुदरत के नियम को याद किया कि जो होता है अच्छे के लिए ही होता है।

‘रॉकेफ़ेलर सेंटर’ प्रतिदिन सुबह नौ बजे से रात बारह बजे तक खुला रहता है। क्रिसमस के अतिरिक्त लगभग हर दिन यह घूमने के लिए पर्यटकों को आमंत्रित करता है। ‘रॉकेफ़ेलर सेंटर’ में टिकटें दिखाकर ही प्रवेश मिला। सबसे पहले ऊपर जाकर न्यू यॉर्क दर्शन की तमन्ना थी। ग्रांड एट्रियम लॉबी में लटकते इस क्रिस्टल के झूमर को एक फ्रेम में बिठाना इतना कठिन हुआ कि लगभग हर सीढ़ी से इसकी तसवीर ली गई तब जाकर यह पाँच मंज़िल तक लटकता झूमर कैद हो पाया।

इसकी भी अपनी एक कथा है। इसका डिज़ाइन माइकल हैमर्स ने तैयार किया है। पानी के झरने जैसा दिखने वाले इस झूमर पर सूरज की रोशनी पड़ने पर इसका हर स्वरोव्स्की क्रिस्टल इंद्रधनुष का निर्माण करता है। इसे क्रिस्टल वाटरफ़ॉल कहते हैं।

‘रॉकेफ़ेलर सेंटर’ की ओब्ज़र्वेशन डैक के इतने किस्से सुने हैं कि इसे देखे बिना न्यू यॉर्क अधूरा ही रहता। शहर का पूरा नक्शा जैसे इसकी डैक पर ही गढ़ा गया हो। यहाँ से शहर की भूरेखा, जलरेखा, नभरेखा सब स्पष्ट दिखती हैं।

70 माले की बिल्डिंग के सबसे ऊपरी तीन मालों पर बना यह डैक, न्यू यॉर्क का 360° वाला अबाधित नज़ारा देता है। चालीस डॉलर प्रति व्यक्ति के अनुसार हमने अपनी टिकटें पहले ही ऑनलाइन पोर्टल से ले रखी थीं। इसकी काँच की हर खिड़की से बाहर का अपूर्व कल्पनात्मक नज़ारा देखने को मिलता था। लगता था कि कोई कार्टून मूवी देख रहे हैं या किसी सुपरहीरो की। सामने ही सबसे ऊँची दिख रही ‘एंपायर स्टेट बिल्डिंग’ से अभी कोई एक तार पर झूलता हुआ आएगा और पल के दसवें हिस्से में हमारे सामने वाली खिड़की पर घुटने मोड़कर बैठ जाएगा। सारा शहर जैसे आँखों के सामने था। दूरियों और ऊँचाइयों का मोल समझ आया कि कहाँ तो छोटी-सी चीज़ भी फ्रेम में नहीं आती और कहाँ यह पूरा शहर फ्रेम से छोटा हो गया है।

इसके तीन तल पर से शहर को हर दिशा से देखा जा सकता है, तो सब तरह से देखा। तेज़ गर्मी थोड़ी देर में ही पैर उखाड़ने लगती थी और अंदर के काँच वाला बंद हिस्सा हमें ठंडी हवाओं की हथकड़ियों में बाँध अंदर खींच ले जाता था। खुले स्थान पर रहो तो छाया वाले स्पॉट पर शरण लेनी होती थी। हम दुबई निवासियों को यहाँ भी गर्मी लग रही थी, हम स्वयं हैरान थे कि हम 50° सेल्सियस में जुलाई बिताने वाले, अभी 30° के वातावरण में भी चैन न पा रहे थे। यह मानव शरीर भी कितना सुविधाओं का गुलाम है न! झट से विलासी हो जाता है।

यहाँ पर कई प्रकार के फ़ोटो खिंचवाने के किओस्क थे। एक बैंच पर बैठाकर ऐसे तसवीर उतारना जैसे कि आप नीचे ऊँचाई से नीचे गिर रहे हों, बच्चों की ज़िद के कारण ये सारे नाटक हमने किए। सबसे ऊपर वाले तल पर फ़िल्मी स्टाइल में आपको एक घूमते चक्र पर खड़ा कर दिया जाता है, और बारी-बारी आपके चेहरे के आगे चक्कर लगाता कैमरा पीछे सारे शहर को आपके थोबड़े के साथ कैद करता होता है। यह भी कर ही लिया। सब मिलाकर दो घंटे का समय रॉकेफ़ेलर बिल्डिंग के हवाले हुआ।

‘रॉकेफ़ेलर सेंटर’ कुल 19 इमारतों का एक बड़ा कॉम्प्लेक्स है जो 22 एकड़ के क्षेत्र में मैनहट्टन में बना हुआ है। इस विशेष इमारत का निर्माण 1933 में पूरा हुआ और तब से यह शहर का पहचान-चिह्न यानि लैंडमार्क बनी हुई है। इस पूरे कॉम्प्लेक्स में हर प्रकार के बाज़ार व मनोरंजन के साधन हैं।

बिल्डिंग से बाहर पीछे की ओर निकले तो देखा कि वहाँ तो अलग ही रौनक-मेला लगा हुआ है। मुख्य द्वार के ठीक सामने ग्लोब उठाए बलशाली व्यक्ति की मूर्ति ‘एटलस’ कहलाती है। यह दो कलाकारों, ली लॉरी व रेने चैम्बेलन की कला का संगम है। यह मूर्ति ग्रीक पुराणों में वर्णित एटलस को दर्शाती है जिसने ओलम्पिक के देवताओं से युद्ध किया परंतु उसकी हार हुई। दंड के तौर पर उसे दुनिया को अपने कंधों पर लेकर घूमना पड़ा। यह मूर्ति रॉकेफ़ेलर सेंटर की जानी-मानी स्थली है। इस आकृति की डाक टिकटें भी हैं।

यहाँ अनेक कैफ़ेटेरिया थे। यह स्थान ‘अपर प्लाज़ा’ कहलाता है। और आगे चलकर ‘लोअर प्लाज़ा’ आता है। वहाँ के फव्वारे की ठंडक में मानवों का हुजूम उमड़ा पड़ता था।

रॉकेफ़ेलर सेंटर की पूरी तसवीर, जो सामने से न ली थी, यहाँ से सुविधा से तो नहीं, थोड़ी मशक्कत व दिमाग के घोड़े दौड़ाने के बाद ली जा सकी। यहीं पर इस इमारत के नामकरण का कारण भी समझने का प्रयास किया। ‘चट्टान जैसे आ गिरने’ को रॉकेफ़ेलर कहते होंगे, तभी तो यहाँ बनी यह मूर्ति एक गिरते हुए आदमी को दिखा रही है। मगर नहीं, यह भ्रम साबित हुआ। इस इमारत के मालिक का नाम ही जॉन डी. रॉकेफ़ेलर है, जो रईस व्यवसायी होने के साथ ही परम लोकोपकारक भी थे। उन्होंने कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से भूमि लेकर 19 इमारतों के इस समूह के लिए धन व्यय किया।

मूर्ति में गिरते हुए व्यक्ति का भी पता किया। यह काँसे की मूर्ति प्रोमेथियस की है जो यूनानी मान्यता के अनुसार आग का देवता भी है और अपनी चालाकियों व चालबाज़ियों के लिए जाना जाता है। यह मूर्ति साढ़े पाँच मीटर ऊँची है और इसका वज़न 8 टन है।

यहाँ से आगे बढ़ते हुए रास्ते में ही ‘हार्शी चोकोलेट वर्ड’, ‘एम. एंड एम. वर्ड’, ‘डिज़नी स्टोर’ पड़े। हालाँकि यह सब बच्चों की रुचि का था परंतु वे हमारे पास समय की कमी से परिचित थे, अत: सब बाहर से ही देखा। ‘लेगो स्टोर’ के साथ फ़ोटो ली और चलते गए।

चलते-चलते ‘सेंट पैट्रिक कैथेड्रल’ के आगे से निकले। इसकी कलात्मकता ने जर्मनी का कोलोन कैथेड्रल याद दिला दिया। हालाँकि यह उसकी विशालता का कुछ प्रतिशत ही रहा होगा, किंतु आकार-प्रकार कुछ-कुछ मिलता जुलता हुआ लगा। कोलोन कैथेड्रल काला रंग लिए हुए है, यह सफेद रंग का था। गिरजाघर यहाँ पर चप्पे-चप्पे पर हैं तो जो भी सुंदर-सा लगता, झट फ़ोटो खींच लेते। रास्ते में ‘टेसला’ का शोरूम भी पड़ा।

यहाँ आए और ‘मैग्नोलिया’ का केक न खाया तो सैर अधूरी ही कहलाएगी। इस यात्रा को पूरा भी तो करना था। दो-तीन तरह के कपकेक खाए। अब ‘ब्रायंट पार्क’में जाना था।

पार्क में धरती पर उगे पौधे और बड़े पेड़ों की झूलती लटकती शाखें मिलकर एक खिड़की का निर्माण करती थीं, जिसमें से बाहर की इमारतों का जट्ठा सिर जोड़ेमिलता था। यह पार्क अपनी जगह इन कंकरीट के जंगल के बीच में कैसे बनाए हुए है और अपने अस्तित्व को सँभाले है, आश्चर्य की बात है। सच है कि प्रकृति से पाषाण फोड़कर भी हरियाली फूट पड़ती है, कुछ ऐसे ही भाव मन में उपज रहे थे। इसमें कई प्रकार के कैफ़े थे। लोग प्रकृति की बजाय कॉफ़ी का आनंद अधिक ले रहे थे।

ब्रायंट पार्क 9 एकड़ के स्थान में फैला है। यह पार्क केवल बगीचा न होकर पूरा रिक्रियेशन का अड्डा है। इसमें भूमिगत बनी हुई न्यू यॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी भी है। सर्दियों में यहाँ नाना प्रकार की गतिविधियों का आयोजन होता है।

यह 1847 में बना था और इसका पुराना नाम रिज़र्वोएर स्कवैयर था। एक बार जल जाने और एक बार ढहा दिए जाने के बाद इसे तीसरी बार 1934 में पुन: बनाया गया और फिर एक बार इसे 1992 में बनाया गया तब इसमें लाइब्रेरी को भी स्थान मिला। यद्यपि पार्क का मालिकाना अधिकार ‘पार्क व रिक्रियेशन विभाग’ के पास है फिर भी निजी लाभरहित संस्था ‘ब्रायंट पार्क कॉर्पोरेशन’ द्वारा इसका प्रबंधन किया जाता है। यह सरकारी व निजी भागीदारी का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करता है।

पार्क के एक ओर विलियम कुलन ब्रायंट की मूर्ति लगी हुई है। दो अन्य मूर्तियाँ भी इस पार्क में हैं- जोस बोनिफेसिओ डी एंड्रडा और विलियम अर्ल डॉज की।

अमेरिका में लोग ठंड के इतने आदी हो जाते हैं कि हल्की धूप भी बर्दाश्त के बाहर हो जाती है। दो इमारतों के बीच में बने ऐसे स्ट्रक्चर बहुत भले लगे। इनके नीचे बैठ सुस्ताने की भी सुविधा थी। इनमें से गुज़रकर हम गलियों-गलियों ‘चेलसी मार्केट’ पहुँचे। इसका रंग-रूप निराला था। बहुत-से पाइपों, तारों, सरियों, जाल, साँचों आदि को खुला छोड़ा हुआ था जिससे उसकी बनावट के मूल रूप को देखा जा सके। इस बनावटी-सजावटी दुनिया में यह भी एक अनोखा ही प्रयोग था।

खान-पान के लाजवाब गंतव्य के रूप में मशहूर चेलसी मार्केट अब अपने आप में एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त ब्रांड बन चुकी है। यह दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य की थोक और खुदरा व्यापार की मंडी कहलाती है। यह एक आम खाद्य बाज़ार से इसलिए भिन्न है कि इसमें विशिष्ट और विभिन्न प्रकार के सौदागर खाद्य का आयात-निर्यात करते हैं। यहाँ अलग-अलग देशों से मँगाई गई खाद्य-सामग्री भी बिकती है। महँगे-से महँगा पदार्थ वहाँ उपलब्ध था।

इसमें हमने अधिक समय न लगाया। खरीदना मकसद नहीं था, देखना था। पीने के पानी का प्रबंध किया, थोड़ी देर पैरों को आराम दिया। इसमें से निकलते हुए ही इसे देखना हुआ। अब बारी ग्रांड सैंट्रल टर्मिनल देखने की थी।

ग्रांड सैंट्रल ट्र्मिनल को उसके नाम से अधिक ग्रांड पाया। यह किसी आधुनिक मॉल जैसा था। बस, सब-वे मैट्रो, नोर्थ रेलरोड, लॉन्ग आइलैंड रेलरोड, सब यहाँ से निकलती व गुज़रती थीं। कितनी ही ट्रेनों व मैट्रो का यह ट्रांज़िट स्टेशन या क्रॉस जंक्शन था। ‘फ़ार्म टू टेबल’ फ्रेश फूड बाज़ार व भोजनालय तो थे ही, कपड़ों की खरीदारी से लेकर, चश्मे, उपहार, ‘एप्पल’ के स्टोर, बैंक आदि सब कुछ तो था एक छत के नीचे। इसका बीच का गुम्बद बहुत विशाल और तीन तल से भी ऊपर बना हुआ था।

जैसे-जैसे न्यू यॉर्क देश का व्यावसायिक और सांस्कृतिक केंद्र बन रहा था, यातायात के लिए भी एक आलीशान भव्य भूचिह्न की माँग कर रहा था। सजे-धजे रुचिराकर्षक शहर की पहल में बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही उत्कृष्ट स्थापत्य के प्रारूप के स्वरूप ‘मैनहट्टन’ शहर के बीच ‘ग्रांड सैंट्रल’ का उदय हुआ जिसने स्थानीय यातायात की परिभाषा बदल दी और शहर को उस प्रसिद्धि तक पहुँचाया जिसका यह आकांक्षी और प्रयासरत था। ट्रेन से काम पर जाओ, आइलैंड की सैर पर जाओ, आकर आराम से चाय पीओ, घर के लिए ताज़ी सब्ज़ियाँ व फल खरीदो और अपनी भाग-दौड़ को एक ही स्थान पर निबटा लो, है न आश्चर्य का कारोबार!

हम इतना घूम चुके थे कि दिशा ज्ञान शून्य को छू चुका था। अगला पड़ाव था हडसन नदी के ‘लिटिल आइलैंड’ यानि छोटे द्वीप पर बना ‘फ्लोटिंग पार्क’। वास्तव में यह चेलसी मार्केट से अधिक पास था किंतु इतनी बारीक योजना बना नहीं पाए कि रूट क्या होना चाहिए इस दिन की सारी जगहें देखने के लिए।

इसे ‘हडसन रिवर पार्क’ भी कहते हैं। हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी जो एक प्रकार से गर्मी में राहत का काम कर रही थी। पार्क के अधिकारियों को यह खराब मौसम जैसा लगा, जिसके कारण पार्क में प्रवेश बंद कर दिया गया था। इसको फ़्लोटिंग कहे जाने का रहस्य भी दिख गया। ऐसे ही हम दुबई के एक पुल को फ़्लोटिंग कहते हैं। यह भी उतनी ही मजबूती से धरती को थामे था। कंक्रीट के जंगल में हरियाली फैलाते पार्क का होना भी नितांत आवश्यक है।

यह सुबह 6 बजे से शाम नौ बजे तक खुलता है और इसमें प्रवेश निशुल्क दिया जाता है। इस द्वीप पर ट्यूलिप के आकार के कई विशाल खम्बों पर हरीतिमा को जमाया गया है। आँखों को लुभाने वाले इस तैरते पार्क पर पहुँचने के लिए इसे मुख्य भूमि से दो पुलों द्वारा जोड़ा गया है। यहाँ रहने वाले लगभग प्रतिदिन इस पार्क में प्रात:कालीन भ्रमण के लिए जाया करते हैं।

हाईलाइन, क्या किसी रेलवे लाइन पर पार्क भी बन सकता है? उत्तर है हाँ! अगर आप न्यू यॉर्क के मैनहट्टन में हो तो यह निराला कार्य यहाँ हुआ है। रेल की पटरियों के इर्द-गिर्द बना हुआ यह एक लम्बे गलियारेनुमा सार्वजनिक पार्क है। यह 2.35 किलोमीटर लम्बा है। यह रोज़ाना सुबह 7 बजे से शाम के 10 बजे तक निशुल्क देखा जा सकता है। सर्दियों में इसे आठ बजे शाम बंद कर दिया जाता है। यह ज़मीन से ऊँची उठी हुई रेल की पटरियों का पुल जैसा है, जिसे ऊँचाई के कारण ही हाईलाइन कहते हैं। पूरी हाईलाइन पर 4 जगह लिफ़्ट लगी हैं, तीन जगह वाटर क्लोज़ेट बने हुए हैं और इससे नीचे उतरने के लिए दस स्थान पर सीढ़ियाँ बनी हैं। व्हील्चेयर प्रयोग में लाने वाले विकलांग यात्रियों के आने-जाने का भी पूरा प्रबंध इस लाइन पर है।

डेढ़ मील लम्बी हाईलाइन का जगह-जगह अलग-अलग कम्पनियों द्वारा प्रबंधन किया गया है।

रेल प्रबंधन द्वारा परित्यक्त यह रेलवे लाइन कई गलियों, सड़कों, क्षेत्रों के ऊपर से होकर निकलती है तो शहर के कई अनचीह्ने हिस्सों को भी आँखों के दायरे में ले आती है। यह लाइन मेटापैकेजिंग से शुरु होती है और गैंसेवूर्त गली, 14वीं गली, चैलसी मार्केट, पश्चिमी यार्ड को छूती हुई, जैविट्स सेंटर, स्प्रिंग स्ट्रीट, कैनाल स्ट्रीट 35वीं स्ट्रीट व ‘हडसन यार्ड्स’ तक पहुँचती है।

रास्ते में यह चेलसी मार्केट के दूसरे तल के बीच में से पश्चिमी किनारे से निकलती है। यह अनूठापन बहुत आह्लादकारी बन जाता है। ठीक उसी स्थान पर एक कैफ़ेटेरिया भी इसी कारण बनाया गया है कि वहाँ रुककर पर्यटक इस मानव निर्मित अभूतपूर्व कारीगरी का लुत्फ़ उठा सकें। चीन मैट्रो का एक ऐसा वीडियो देखा था जिसमें मैट्रो एक रिहायशी इमारत के अंदर से गुज़रती है। इस रेलमार्ग का इस्तेमाल होना 1980 में बंद हो गया था तब पेरिस की नकल करते हुए इसे पार्क में तब्दील किया गया। यह वास्तव में 4 किलोमीटर लम्बा मार्ग था जिसका कुछ हिस्सा तोड़ भी दिया गया था और शेष का पार्क बना दिया गया।

इसमें बना पार्क न्यू यॉर्क के वनस्पति जगत की पूरी सचित्र बोधगम्य जानकारी के साथ ही उन पेड़-पौधों को पास से देखने समझने का मौका भी देता है। अमेरिका में पाए जाने वाले 500 विभिन्न प्रकार के पौधों का यह घर है। पौधों को इस प्रकार बोया गया है कि रेलवे ट्रेक भी दिखते रहें और हरीतिमा भी। जगह-जगह बैठने के लिए बेंचें भी बिछाई गई हैं। यहाँ से शहर के रुचिर दृश्य मिलते हैं। हाई लाइन पर चलते हुए कभी हम लकड़ी के फट्टों पर चल रहे होते हैं, कभी सीमेंट के फर्श पर, कभी बजरी पर, कभी मिट्टी पर तो कभी मोज़ाइक टाइल्स पर। पूरे ट्रेक पर नवीनता बनी रहती है।

रास्ते में पड़ने वाली बिल्डिंग पर ‘म्यूरल’ पेंटिंग के तो कहने ही क्या! इसकी इतनी सुंदर तसवीर कहीं और से निकाली नहीं जा सकती।

हाईलाइन के दक्षिणी छोर पर टिफ़ेनी कम्पनी द्वारा संचालित बाग है जो एक बाल्कनी के जैसी शक्ल लिए हुए है। हमने अपनी यात्रा यहीं से आरम्भ की। आगे चलकर ‘डोनाल्ड पेल्स व वेंडी कीस गेनसेवूर्ट वुडलैंड’ स्थान है जो सारा लकड़ियों के फट्टों से आकर्षक रूप से बना है। यहाँ बैठने के लिए बेंच भी लकड़ी की हैं। गर्मियों के महीनों में यह हिस्सा हरे पर्दे-सा लगता है। चौदह और पंद्रह स्ट्रीट के मध्य की हाईलाइन में पानी का जमाव भी दर्शकों को लुभाता रहता है। इसके बाद आश्चर्यजनक तरीके से रेलवे ट्रेक चेलसी मार्केट की इमारत के मध्य से निकलता है।

यह इमारत पहले ‘नेशनल बिस्कुट कम्पनी’ यानि ‘नबिस्को’ कहलाती थी, अब चेलसी मार्केट स्थल है। इसी पर चलने वाली ट्रेन से जो आटा यहाँ भेजा जाता था, उसे ही इस्तेमाल कर ‘ओरियो’ के कुरकुरे कुकी की खोज हुई थी। इसमें एक ओर से खुला फूड-कोर्ट भी है।

इसके ऊपर लगे पौधों की वानस्पतिक जानकारी भी बोर्ड लगाकर दी गई है। इसमें एक एम्फ़िथियेटर की भी व्यवस्था है। इसकी बाईसवीं गली पर टीक के पेड़ की लकड़ी की बहुत चौड़ी सीढ़ियाँ हैं, जिन पर लोग पिकनिक मनाने आते हैं।

इसकी ऊँचाई इस प्रकार है कि भरी-पूरी हरियाली के मौसम में ज़मीन पर लगे पेड़ों के शीर्ष को आप हाईलाइन पर बराबर से देख रहे होते हैं। यहाँ से हडसन नदी भी बीच-बीच में से झाँकती मिलती है। इसमें पंद्रह से अधिक क्यारियाँ हैं जिनमें एक लाख से अधिक पौधे लगे हैं। इस हरियाली की ठंडक आँखों में बसाते हुए बूँदा-बाँदी का आनंद लेते हुए रुकते-चलते हमने एक घंटा लगाया इसे पूरा चलकर पार करने में। इसके बाद पास ही ‘द वेसल’ हमारा अगला दर्शनाभिलाषी था।

यह हडसन यार्ड्स के पास स्थित सबसे प्रभावशाली इमारत है। इसे देखने का कोई शुल्क नहीं है। यह आम जनता के लिए सुबह 10 से शाम 8 बजे तक खुला रहता है। इसमें जाने के लिए पहले से किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है।
‘द वेसल’ जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, एक बर्तन की शक्ल का है। इसका ताम्बई रंग इसे अन्य सभी निर्मितियों से अलग बनाता है। नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ इसका आकार भी हैरत की वस्तु है। फिर बर्तन की ही तरह इसका ढाँचा इस प्रकार है कि वह अंदर से खाली है। यानि पूरी संरचना एक गिलास की तरह ही है। इसे मधुमक्खी के छत्ते जैसी आकृति देने की कोशिश भी की गई है। इसका डिज़ाइन थॉमस हैथर्विक द्वारा तैयार किया गया था। इसके बाहर के शीशे शहर का प्रतिबिम्ब उतारते हैं।

यह भी बंद ही था। केवल भूतल पर एक बार अंदर से देख आने की इजाज़त भर थी। इसके अंदर हमने पाया कि गोल चक्कर लगाती सीढ़ियाँ भी हैं जिससे इसके हर एक फ़्लोर पर जा सकते हैं। फ़िलहाल केवल पहले फ़्लोर तक जाने दिया गया। इसके अंदर लिफ़्ट भी है जो कैसे तिरछी चढ़ाई चढ़ती है, यह समझ न आया।

द वेसल और ‘हडसन यार्ड्स शॉपिंग मॉल’ आमने-सामने थीं तो मॉल का भी एक चक्कर लगाना बनता है। मॉल आलीशान बनी है। खरीदारी करने का मन ऊर्जा की कमी ने मार दिया। इसके बाद हडसन यार्ड्स का सब-वे स्टेशन भी पास ही था। यह स्टेशन तो स्वयं मॉल जैसा ही खूबसूरत था। वहाँ से मैट्रो पकड़कर हम ‘टाइम्स स्कवैयर’ के रात्रि-दर्शन का लाभ उठाने गए।

दिन में तो क्या ही भीड़ थी जो रात में थी। लगता था कि सारा न्यू यॉर्क यहीं आ खड़ा हुआ है। तिल रखने की भी जगह नहीं थी।

हमें कहीं सार्वजनिक पानीगृह नहीं मिले। सबसे अजीब बात यह लगी कि अगर किसी को बाथरूम आदि जाना हो तो ऐसे ही किसी शोरूम में जाकर वह इस्तेमाल नहीं कर सकता, उसके लिए वहाँ कुछ खरीदारी करनी होती है। एक शोरूम में हम बिना खरीदारी के जा सके। यहाँ लोगों में कुछ गजब ही नकचढ़ापन दिखा हमें। इतने मशहूर स्थान में वहाँ बैठे सबके दिमाग़ हो गए थे। सड़क पर वास्तविक कॉपी कहकर बड़ी-बड़ी कम्पनी के नाम का नकली माल बेचने वाले भी ऐसे पेश आते थे कि वे असली कम्पनी के असली मालिक ही हों जैसे। कदाचित असली मालिक भी यों न पेश आता होगा। वहाँ के अश्वेत बड़े ही विशालकाय और दबंग प्रवृत्ति के थे। एक अलग ही संस्कृति हमारे सामने उपस्थित थी। कुछ स्त्रियों ने नारी सुलभ अंगों पर अलग-अलग तरह की पेंटिंग करवाई हुई थी। प्रदर्शन की इस कला से हम पूर्णत: अनभिज्ञ थे। सांस्कृतिक भिन्नता इसी को कहते हैं। कुल मिलाकर हमें वहाँ कुछ अच्छा अनुभव नहीं हुआ। लगा कि जाने क्या बात है कि लोग यूँ ही यहाँ के लिए मरे जाते हैं। बस, वहाँ से निकले तो कुछ खाने की व्यवस्था कर सीधा आवास पर पहुँचे।
अगला दिन भी करीब-करीब तय ही था। सबसे पहले मैनहट्टन पुल के पास पहुँचना तय हुआ। गाड़ी एक जगह जमा के हम पुल के नीचे से निकले तो यह अजीब-ओ-गरीब ‘डम्बो’ मार्केट दिखाई दी।

इस दिन का पहला पड़ाव यह ‘डम्बो मार्केट’ ही हुआ जो मैनहट्टन पुल के नीचे ब्रुकलिन जगह में लगती है। इसमें नए-पुराने कपड़े, आभूषण, घड़ियाँ, पर्स आदि सड़क पर ही बिक रहे थे। यह हर शनिवार-रविवार को ऐसे ही लगती है जैसे भारत में कई स्थानों पर पैंठ लगती है। यह ‘डम्बो’ के गोल गुंबद वाले दरवाज़े के नीचे से शुरु होकर पुल के नीचे-नीचे आगे तक लगती है। सुबह आठ से शाम चार बजे तक लोग सामान की खरीदारी करते रहते हैं। सामान बेचने वाले अधिकतर अश्वेत थे।

इस मार्केट को पार कर हम ब्रुकलिन ब्रिज पार्क में थे। शनिवार का दिन था ही, तो बहुत-से छोटे-छोटे बच्चों का यह खेल-मैदान बना हुआ था। पार्क के एक ओर ब्रुकलिन ब्रिज का नज़ारा था तो दूसरी ओर मैनहट्टन ब्रिज का। दोनों अभियांत्रिकी कारीगरी के शानदार नमूने।

इस पार्क से पुल की कई मधुर तसवीरें निकालीं। यह आकर्षक ब्रुकलिन ब्रिज मैनहट्टन को नदी पार ब्रुकलिन हाइट्स से जोड़ता है। इस पर वाहनों की आवाजाही के लिए 6 मार्ग, अन्य एक साइकिल चलाने वालों के लिए और एक पैदल चलने वालों के लिए भी बना है।

इसका खाका जॉन ए. रोबलिंग ने तैयार किया। यह 14 वर्षों में बनकर तैयार हुआ तथा 1883 में चालू हुआ। यह अपने समय का सबसे लम्बा लटकने वाली तकनीक से बना पुल था। नदी के ऊपर से नीचे उतरने के बाद यह काफ़ी दूरी तक ज़मीन पर चलता रहता है। पानी के ऊपर इसकी लम्बाई 1600 फुट के करीब है और पूरी लम्बाई छ: हज़ार फुट के लगभग है। आवश्यकतानुसार इसका सुधार कार्य दो-तीन बार किया जा चुका है।

ब्रुकलिन ब्रिज के बाद बना मैनहट्टन ब्रिज दूसरा प्रसिद्ध पुल है। यह भी मुख्य खंभों पर तारों के सहारे लटका हुआ पुल है। विक्षेपण सिद्धांत पर बना हुआ यह अपने आप में नव्य अभियांत्रिकी का विशेष नमूना है। यह 6,855 फुट लम्बा है और पानी के ऊपर का हिस्सा लगभग 1500 फुट का है। इसकी खासियत यह है कि यह दो तल ‌(डबल डैक) वाला ब्रिज है। इसका नक्शा लिओन मोइसीफ़ ने तैयार किया था। इन्होंने ही ‘जॉर्ज वाशिंगटन पुल’ तथा ‘रोबर्ट एफ. कैनेडी पुल’ को बनाने में सहायक रूप में काम किया था।

यह निचले मैनहट्टन के चाइनाटाउन को उस पार डाउनटाउन ब्रुकलिन से जोड़ता है। यह इस मायने में खास है कि इसमें 7 लेन सड़क यातायात के लिए तो 4 लेन ट्रेनों के लिए भी हैं। बाइक-चालकों और पैदल वालों के लिए 1-1 रास्ता अलग से है। इसके बनने में 8 साल लगे और इस पर ट्रैफ़िक का आना-जाना 1909 में शुरु हुआ। ऊपरी तल पर चार लेन और निचले पर तीन लेन, इस प्रकार सात लेन हैं। दो तल होने से यह सुविधा होती है कि ट्रैफ़िक की ज़रूरत के मुताबिक लेन की दिशा बदली जा सकती है ताकि यातायात की धारा टूटे न।

इस पुल के नीचे पुल की परछाईं में गर्मी से बचने का अच्छा जुगाड़ था। पार्क में हरी-हरी घास पर बच्चों की लुटलुटी चल रही थी। बड़े बच्चे पेड़ों पर चढ़ गए थे। वातावरण की नमी से पेड़ों के तनों पर भी हरे शैवाल उग आए थे।

पार्क के सामने ईस्ट नदी अपने पूरे सौष्ठव के साथ विद्यमान थी। शांत-सौम्य नादी की एकाग्रता को कोई-कोई यॉट या बेड़ा बीच-बीच में भंग कर देते थे। पार्क के दूसरी ओर, अर्थात् नदी तट से दूरी बढ़ाते हुए चलो तो अन्य कई तरह के बाज़ार व दुकानें थीं। सामने ही ‘एम्पायर स्टोर’ में बहुत-से लोग खरीदारी में व्यस्त थे।

यह एम्पायर स्टोर भी खुद में एक अजूबा है। यह गृहयुद्ध के समय का एक गोदाम था जो अब खाली पड़ा था। इसे मार्केट में तब्दील किया गया है। गेरुआ ईंटों का बना हुआ और मजबूत लोहे के दरवाज़ों में जकड़ा हुआ यह अंदर से अंधकारपूर्ण और ठंडा होने के कारण युद्धकाल में खाने के सामान को लम्बे समय तक सुरक्षित रखता था। इसी कारण अब भी यहाँ पर खाने-पीने की दुकानें अधिक हैं। प्रसिद्ध ‘टाइम आउट मार्केट’ भी इसी के एक हिस्से में है। इसके अलावा ऊनी व चमड़े के कपड़े भी खरीदे जा सकते हैं। यह एक कारखाने की तरह भी है क्योंकि कुछ कारीगर यहीं काम कर अपने उत्पादों को बेचते हैं।

न्यू यॉर्क के इन तीन दिनों में इतना घूमे, इतनी बार बस, मैट्रो और फ़ैरी ली कि याद रखना मुश्किल है कि कब-कब, कहाँ-कहाँ से कैसे-कैसे गए। अपनी फ़ोटो गैलरी में तसवीरों को देख ऐसा भी आश्चर्य होता है कि क्या हम इस स्थान पर थे भी! यादगार बनाने के प्रयास में यादें कम बनाते हैं हम लोग। ‘पोर्टसाइड एट ब्रुकफ़ील्ड प्लेस’ शायद कुछ ऐसी ही शीघ्रता में देखा।

ब्रुकलिन से फ़ैरी लेकर ब्रुकफ़ील्ड से मैनहट्टन द्वीप पर पहुँचे। यहाँ घूमते-घामते वॉल स्ट्रीट पर आए। यहाँ का ‘चार्जिंग बुल’ भी देखना था, पर उसका नम्बर बाद में था, पहले अन्य और स्थल थे सूची में। यहाँ ‘हयात सैंट्रिक’ के पास बने ललितकम्पाऊंड में लाल रंग की बस का इंतज़ार किया। यह बस ‘डाउनटाउन कनेक्शन’ के नाम से विख्यात है और निचले मैनहट्टन में सभी रुचिकर स्थलों तक घुमाती है।

यहाँ बहुत-सी किराए की साइकिल के स्टैंड बने थे जिसमें एक कतार में खड़ी नीली वर्दी पहने साइकिलें सलीके से जमी थीं। यहाँ से डाउनटाउन कनेक्शन बस ली। उससे ब्रुकफील्ड प्लेस में उतरे।

ऐसे छत वाले रास्ते पैदल चलने की आदत में बढ़ोत्तरी करते हैं। अगर स्थान अधिक दूर नहीं है तो किसी यातायात के साधन की प्रतीक्षा में समय गँवाने की बजाय पैदल जाकर समय बचाया जा सकता है और तंदुरुस्ती तो बढ़ेगी ही। यहीं से निकलकर आगे जाने से पहले ‘ब्रुकफील्ड प्लेस मॉल’ दिखाई दी।

हम दुबईवासियों को मॉलों से बहुत प्रेम होता है। कुछ तो एक कारण यह भी होता है कि तुलना की जा सके कि अपने दुबई की मॉल ही सबसे खूबसूरत हैं या इसके बाहर भी सुंदर-सुंदर मॉल हैं। यह या फिर जाने कौन-सा जादू हमें ‘ब्रुकफील्ड प्लेस मॉल’ के अंदर ले गया।

‘ब्रुकफील्ड प्लेस मॉल’ के आकर्षण का आनंद लिया। मॉल बेहद मनभावन थी। मॉल की छत के नीचे भी विमुक्त नैसर्गिक वातावरण में बैठने का अहसास लिया जा सकता था। यहाँ हमने हल्के चाय-नाश्ते का स्वाद चखा। फिर इसके दूसरी ओर निकले और फैरी टर्निनल से ‘स्टेटन आइलैंड’ के लिए फैरी ली। हमने दो दिन का ‘पास’ लिया हुआ था। इस फैरी की टिकट उस ‘पास’ में शामिल थी। अलग से टिकट लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

फैरी स्टेशन भी सुरूप बना हुआ था। इसमें प्राकृतिक ठंडी हवा के झोंकों का मज़ा लेते हुए बैठने का समुचित प्रबंध था। इसे देखकर महसूस हुआ कि दुबई के स्टेशनों पर यहाँ की छाप है। हडसन नदी के पानी के बीच से मैनहट्टन शहर अवलोकनीय चित्र उपस्थित कर रहा था। कितनी भी बड़ी मानव निर्मितियाँ हों, प्राकृतिक निर्मिति के सामने कितनी बौनी प्रतीत होती हैं।

जल व आकाश की संधि कराती मैनहट्टन की क्षितिज रेखा।

फैरी में से लेडी लिबर्टी की अच्छी तसवीर ले लेना उस समय बहुत बड़ी उपलब्धि रही। दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों कोशिश कर के भी उसके ऊपर जाने का टिकट हम नहीं जुटा पाए। शायद दस-पंद्रह दिन पहले ही लेनी चाहिए थी। लिबर्टी म्यूज़ियम और आइलैंड का ही टिकट उपलब्ध था, सो हमें गवारा नहीं था। आइलैंड से तो प्रतिमा के केवल पाँव ही दिख पाते। पूरी देखना था, जो अब दूर से ही संभव था। हमारे मोबाइल-कैमरे की दूरदर्शी आँख हमें दिखा रही थी कि आइलैंड पर इस समय हज़ारों की तादाद में लोग खड़े थे। हमने शुक्र मनाया कि हम उस भीड़ का हिस्सा नहीं हैं। अंगूर खट्टे ही होते होंगे वहाँ, यह सोच हँसी भी आई।

मैनहट्टन के दक्षिणी छोर पर 12 एकड़ क्षेत्रफल के द्वीप को ‘लिबर्टी आइलैंड’ का नाम दिया गया है। ‘लिबर्टी नेशनल मोनुमेंट’ की स्थापना के लिए इस ‘ग्रेट ओएस्टर’ द्वीप (‘विशाल सीप’ पुराना नाम) को न्यू यॉर्क ने व्यापारी आइज़ेक बेड्लू से खरीदा था। पहले यहाँ किले का निर्माण हुआ फिर किले के अंदर इस वृहदकाय प्रतिमा का।

कई तरह की नावें, फैरी, जहाज़ व हैलीकोप्टर उसके चहुँ ओर मँडरा रहे थे। कुछ उसकी परिक्रमा कर रहे थे मानो वह कोई पवित्र हवन कुंड हो। कुछ भी हो लोग दुनियाभर से इसे देखने ही आते हैं।

यह क्षेत्र यूनेस्को की हैरिटेज साइट्स यानि वैश्विक धरोहरों में दर्ज है। न्यू यॉर्क की खाड़ी में स्थित स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी अमेरिका और फ़्रांस की दोस्ती का प्रतीक है। यह मूर्ति 93 मीटर ऊँची है। यह सीधे हाथ में मशाल उठाए और बाएँ में एक फाइल या पुस्तक को पकड़े आज़ादी की घोषणा करती है। इसके मुकुट में आठों दिशाओं में देखने के लिए ओब्ज़र्वेशन तल बना है। इसके नीचे लिबर्टी म्यूज़ियम भी देखने लायक है।
अब फैरी ने हमें स्टेटन आइलैंड उतार दिया। अब यहाँ क्या करें, यह तो प्लान में था ही नहीं। यहाँ बंदरगाह निर्माण का कार्य भी पूरे चढ़ाव पर था। सौ-दो सौ मीटर की दूरी पर एक निर्माण हमें आधुनिक-सा लगा। सोचा चलकर देखते हैं। वहाँ एक निहायत ही नवीन और खूबसूरत मॉल ने हमारा स्वागत किया। इसका नाम ‘ई.ओ.’ या ‘एम्पायर आऊटलेट्स मॉल’ था।

मॉल में आमोद-प्रमोद के सभी इंतज़ाम थे। हल्की गर्मी में भी खूब सारे पर्यटक इसका मुआयना कर रहे थे। मॉल के बीच के प्रांगण में आते ही संगीत की धुन कानों में पड़ रही थी जो कहीं दूसरे तल से आ रही थी। हम फूलों की साज सज्जा से बने प्रांगण में तसवीरें लेकर संगीत की ताल को पिछुआते वहीं पहुँच गए। दूसरे तल के खुले हिस्से वाले बड़े गलियारे में कई फव्वारे उष्णता घटाने के प्रयास में जुटे हुए थे। वहीं से यह ऊँचा संगीत नीचे तक सुनाई दे रहा था। घूमने वाले सभी प्राणी मस्त-मलंग अपनी-अपनी नृत्य-कला दिखा रहे थे। बच्चे बूढ़े सभी थिरक रहे थे। हमने भी सबके साथ मिलकर थोड़ी-बहुत कमर हिलाई। इस मनोहर अनुभव ने हमारी दोपहर को खुशगवार बना दिया।

स्टेटन द्वीप हम इसलिए आए थे कि मार्ग में लिबर्टी की प्रतिमा देख सकें। यहाँ हमें और भी आनंद आया और यह गंतव्य निमित्त मात्र न रहकर दर्शनीय सूची का हिस्सा हो गया।

ब्रुकफ़ील्ड से स्टेटन आइलैंड के लिए एक बहुत बड़ी फैरी हर दम चक्कर लगाती है। यह निशुल्क यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ सैलानियों को उतारती रहती है। जब हम फ़ैरी टर्मिनल पर पहुँचे तो हमें यह दिखी और हम इसकी विशाल आकृति में ऊँट के मुँह में जीरा जैसे समा गए। इसने हमें वापस ‘स्टेटन आइलैंड फैरी टर्मिनल’ पर उतारा। यहाँ आस-पास ही हमने पिज़्ज़ा से अपने उदर को शांत किया और साथ सटे हुए, तट पर ही बने हुए ‘बैटरी पार्क’ की ओर कदम बढ़ाए।

इसे हम खुले आसमान के नीचे बना ऐतिहासिक संग्रहालय या स्मारक भी कह सकते हैं। एक पार्क को ही संग्रहालय में ढाल दिया गया था। बैटरी पार्क की एक और विशेषता यह है कि यहाँ से स्टेटन आइलैंड और ‘द स्टेच्यू ऑफ़ लेडी लिबर्टी’ भी सामने ही दिखाई देती है।

इस पार्क में न्यू यॉर्क के आरंभ का इतिहास दर्ज है। चार दशक पहले इस स्थान पर बंदूकों की बैटरी बनाई जाती थीं। इसके शुरुआती क्षेत्र को लैंड्फ़िल के द्वारा धीरे-धीरे बढ़ाया गया जिससे इसका कुल इलाका 25 एकड़ का हुआ। इसकी भूमि के नीचे ब्रुकलिन बैटरी टनल और भूमिगत पारपथ भी बने हुए हैं।

पार्क में अश्वेतों का अफ़्रीकी रीति का प्रत्यक्ष गीत-संगीत चल रहा था। उनके चारों ओर गोल घेरे में दर्शकों और श्रोताओं की अच्छी-खासी भीड़ जुटी थी। इस पार्क में बहुत से ऐतिहासिक स्मारक मौजूद हैं। इसके अंदर 19वीं शताब्दी का ‘क्लिंटन कैसल’, ‘सी-ग्लास करुसल’, ‘ईस्ट कोस्ट मैमोरियल’, ‘द बैटरी अरबन फ़ॉर्म’, ‘द बैटरी फाउंटेन स्प्लैश’, ‘कोरियन वार मैमोरियल’, ‘अमेरिकन मर्चेंट मैरिनर्स मैमोरियल’ आदि इसका हिस्सा हैं।

यह मैमोरियल उन बहादुरों की याद में बना है जिन्होंने अटलांटिक युद्ध में अपने प्राण गँवाए। साढ़े चार हज़ार से कुछ अधिक नाम संगमरमर की इन आठ दीवारों पर गढ़े हुए हैं जो ग्रेनाइट से बनी बाज़ की प्रतिमा के दोनों ओर बनी हुई हैं।

एक समय में यहाँ बहुत-से शरणार्थियों का आगमन हुआ था। उसी को दर्शाती और विस्थापितों की पीड़ा को बताती लुई सैनगिनो की बनाई मूर्तियाँ अति विचारणीय बन पड़ी हैं।

1950 से 1953 तक चले कोरियन युद्ध के शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि देता यह कटआऊट पार्क में स्थापित है। कोरिया युद्ध के लिए यह पहला स्मारक-स्तंभ है। इसका सैनिक आकृति वाला रिक्त हिस्सा एक प्रकार का सन-डायल है। जिस समय यह युद्ध समाप्त हुआ था, 27 जुलाई को 10 बजे प्रतिवर्ष सूर्य अपनी किरणें सीधा सैनिक के सिर पर डालता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध में तटरक्षक सेना के जिन स्त्री-पुरुषों ने अपने प्राणों का बलिदान किया, उनकी याद में यह स्मारक-स्तंभ यहाँ स्थापित किया गया है।

इस पार्क में लगी इन श्रद्धांजलियों ने हमारी जिह्वा को मौन और हृदय को व्यथित कर दिया।

अभी अनेक स्थल सूची के अनुसार बाकी थे। अंत: अधिक समय न लगाते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। ‘द स्काई-स्क्रेपर म्यूज़ियम’ इसके अंतिम छोर पर था। इसे देखे बिना न रह सके।

पार्क से निकल सड़क पार कर ‘द स्काई-स्क्रेपर म्यूज़ियम’ में गए, जिसे हम मिनिएचर न्यू यॉर्क भी कह सकते हैं। इससे पूरे न्यू यॉर्क की इमारतों का लेखा-जोखा मिल रहा था। उन्हें सब दिशाओं से देखने का सुनहरा अवसर था। इसमें बहुत-सी इमारतों की विस्तृत जानकारी मिली। दुनिया की बड़ी-से-बड़ी इमारतों का आपसी तुलनात्मक अध्ययन वहाँ प्रदर्शित था। इससे शहर का विहंगात्मक बोधहुआ।

एम्पायर स्टेट ट्रेल पर चलते हुए हम चार्जिंग बुल तक पहुँच गए। वहाँ लगी लम्बी लाइन देखकर हम दंग रह गए। ऐसे मानो किसी मदिर में दर्शनों को भक्तगण पंक्तिबद्ध हैं। परंपरा का पालन करते हुए हम भी लाइन में लग गए। जब तक नम्बर आता, जाली की बाड़ के बाहर से ही कुछेक चित्र उतार लिए।

हैरत होती थी कि इस साँड में ऐसा क्या है कि लोग दीवानों की तरह इसके साथ फ़ोटो खिंचवाने को मचल रहे हैं। यह किसी फ़िल्म की सुपरस्टार अभिनेत्री है क्या? यह काँसे की बनी हुई मूर्ति कैसे ऊर्जा से चार्ज कर रही है आगंतुकों को? ज्ञात हुआ कि कलाकार अर्टुरो डि मोडिका की अद्भुत कलाकृति है यह, जो वॉल स्ट्रीट के ‘बाऊलिंग ग्रीन’ नामक स्थान पर है। 7 हज़ार पौंड्स के वज़न वाला यह साँड वित्तीय बाज़ार में ‘बुलिश’ प्रवृत्ति के आशावाद का प्रतीक है। इसका निर्माण 1987 में वित्तीय बाज़ार में जबरदस्त गिरावट आने के बाद किया गया था। यह आपत्ति के समय में भी साहस को बनाए रखने का संदेश देता है।

इसको कई टुकड़ों में स्टूडियो के अंदर ही बनाया गया था और स्टॉक एक्सचेंज के सामने लाकर वेल्डिंग द्वारा जोड़ा गया था। इतनी सफ़ाई से जोड़ा गया कि जोड़ का कोई निशान इस पर दिखता नहीं है। बाद में इसे इस स्थान पर सड़क के बीच में पत्थरों से बनी ज़मीन पर गोल घेरे में खड़ा किया गया।

अपनी बारी आने पर जैसी मुद्रा में अन्य लोग खड़े होते थे, वैसी ही हमने बनाई और फटाफट से पहले कई तसवीरें निकाली। इससे पहले कि अगले नम्बर वाले हम पर बरसते, हम बरसाती मेंढक की तरह वहाँ से फुदक लिए।

अब आगे हमें 11 सितम्बर के स्मारक तक जाना था। रास्ते में यह निराला-सा ‘ट्रिनिटी चर्च’ दिखा। इसकी सुषमा ने हमें मोहित कर लिया।
इसके आसपास बहुत लोग जमा थे। दिन भी रविवार का था। इसके सामने ही आगे चलने पर एक और कलाकृति ने हमें रोक लिया। इस लाल वर्गाकृति के पास तरह-तरह की तसवीरें निकाले बिना निकल जाना इसका अपमान होता।
आठवीं के बच्चों को गणित सिखाने में बहुत काम आएगा यह। त्रिज्या, व्यास, वृत्त का परिमाप, वर्ग का परिमाप, घन का आयतन, उसमें से सिलेंडर का आयतन घटाकर कुल लगने वाली सामग्री की कीमत आदि निकालना सिखाना बहुत आसान होगा। इसके अतिरिक्त कुल आयतन में से नीचे का कटा हुआ पिरामिडनुमा हिस्से का आयतन भी तो घटाना होगा। खैर, फिलहाल तो हमने इसकी आकृति से खूब मस्त अंदाज़ में तसवीरें लीं।

आगे ‘ज़ुकोटि पार्क’ भी मिला। छाया-छाया में सुहावने मौसम में हम कदमताल मिलाते हुए बढ़ते रहे।

नौ-ग्यारह मैमोरियल देखने जाना एक ऐसे ऐतिहासिक घटनास्थल पर जाना है जिसने पूरे विश्व को दहला दिया था। मुझे याद है वह काला दिन। अमेरिका में शाम के सवा चार बजे दुबई में सुबह के सवा आठ बजे थे उस दिन। अपने कार्य स्थल की प्रार्थना-सभा में इसका उल्लेख हुआ था। कानों पर विश्वास ही न हुआ था।

आज उसी के अवशेषों पर निर्मित यह स्मारक स्थल विगत को सलामी देता हुआ भव के प्रति आशा का संचार करता है। ट्विन टॉवर के पूरे क्षेत्र को पार्क बना दिया गया है। यह पार्क ओक पेड़ों यानि शाहबलूत से घिरा हुआ है। मानव निर्मित सबसे बड़ा पानी का झरना उन दो मीनारों के स्थान पर बनाया गया है। दो टॉवर को प्रतिध्वनित करते दो तालाब व झरने बनाए गए हैं। हरेक ताल एक एकड़ में बना है। इन दोनों तालाबों की बाहरी दीवारों पर काँसे से उन सभी मासूमों के नाम की तख्तियाँ लगी हैं जो इस आततायी घटना में मारे गए। इसे देखकर मन बहुत उदास हुआ। मुस्कुराना कठिन हो गया।

नाइन-इलैवन, इसी नाम से संग्रहालय भी बनाया गया है। इस दुर्घटनापूर्ण तारीख का सारा इतिहास इस म्यूज़ियम में प्रकट किया गया है। इस आक्रमण के शिकार 3000 जीवनों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई है। इसके अतिरिक्त जो इस घटना के समय आस-पास ही थे और येन-केन-प्रकारेण जान बचा सके, उनके साहस, धैर्य और विवेक को भी यह स्मारक नमन करता है। धन्य थे वे जो गए और धन्य हैं उन्हें याद करने वाले।

इस स्मारक के सामने ही एक सफेद रंग की बिल्कुल नवीन तरह की निर्मिति ने हमारा ध्यान खींचा। यह एक पंख फैलाए पक्षी की तरह की आकृति वाली मॉल थी। नाम था- ‘द ऑकुलस सेंटर’। यह स्टील की मजबूत छड़ों से बनी हुई संरचना है।
धराशायी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के पुनर्निर्माण का ही हिस्सा है- ऑकुलस। सितम्बर 2001 में सब कुछ तहस-नहस हो जाने के बाद वैश्विक व्यापार केंद्र के पुनर्निर्माण की योजनाएँ नव कल्पना के साथ बनीं। ऑकुलस को तब एक यातायात केंद्र और व्यापारिक स्थल के रूप में बनाया गया। 2004 में इसकी परियोजना पर कार्यान्वयन शुरु हुआ और 2016 में यह बनकर तैयार हुई। यह इस शहर की ही नहीं, पूरे देश की उठ खड़े होने की अपार शक्ति, क्षमता और दृढ़ निश्चय का प्रतिरूप है। यह आतंक का प्रतिनिधित्व करने वालों के मंसूबों पर एक करारा तमाचा है। उनके क्रूर इरादों की हार पर जयघोष का स्थायी अक्षर है यह ऑकुलस। हम इसी में से होकर निकले। इसकी सम्पूर्ण आकृति को निरखा-परखा। यह उड़ान भरने की शुरुआत करते फ़ाख्ता को दर्शाता है।

ऑकुलस तक पहुँचते हुए हमने म्युरल पेंटिंग का भी जायज़ा लिया। यहाँ से निकलकर एक बार ‘एम्पायर स्टेट बिल्डिंग’ को भी निकट से देखा। दूर से कई बार देखा था। रोकेफ़ेलर सेंटर की छत से भी यही सबसे ऊँची दिखती थी। यह आसमान को भेदती मीनार 102 मंजिला है। कई-कई बार गुज़री उन गलियों से फिर एक बार गुज़रे और अपने आवास की राह ली।

अगले दिन बच्चों के पसंदीदा ‘हैरी पॉटर’ स्टोर का दौरा किया। यह न्यू यॉर्क का प्रधान व प्रामाणिक स्टोर है। यह एक नामी बिल्डिंग ‘फ़्लैटिरॉन’ के पास ही है। यहाँ पर सबसे बढ़िया हैरी पॉटर के उत्पाद मिलते हैं। यह तीन मंज़िल में फैला हुआ है।

इसे बहुत कल्पनात्मक तथा सुरुचिपूर्ण रीति से सजाया गया है। यह केवल एक विक्रय-केंद्र नहीं था, बल्कि एक संग्रहालय की तरह से था। इसको अच्छी तरह खँगाला। कुछेक चीज़ें खरीदीं। हालाँकि यह बहुत रचनात्मक विधि को प्रदर्शित करता है, फिर भी कुछ देर में ही उबाऊ लगने लगा। बच्चों को अंदर ही छोड़कर हम बारिश और सुहावने मौसम का आनंद लेने बाहर आ गए। बाहर फूलों की दुकान और सामने ब्रौडवे के चौराहे पर लगे कलित फ़्रेम में तसवीरें लीं।

सरकार की ओर से मौसम के अलर्ट लगातार मिल रहे थे किंतु हम रुककर बैठ न सकते थे। हमें आज ही बोस्टन वापिस जाना था।

सड़क पर चलते हुए कार में से ही एक बार फिर मैनहट्टन ब्रिज की सूर्यास्त के दौरान ली गई तसवीर अच्छी बन पड़ी।

— डॉ. आरती ‘लोकेश’

डॉ. आरती ‘लोकेश’

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