बचपन तुम्हारे लगे सुहावने
बचपन तुम्हारे लगे सुहावने
कोयल की ज्यों मन बहलाने
मदहोशी छा जाती
मुश्किल से ही सम्भल पाती
इस सम्भलने में भी थी
अस्थिर होते मन की
ढीली होती पकड़
अद्भूत अहसास
की गहरी होती जकड़
सांसों की बढ़ती तेजी
कम्पित होता हृदय बार-बार
उस मदहोश हवा में
बिन पंख उड़ी
चाहकर भी जो न कहती
अजब भाषा आंखों की
वो सब कहती
बूंदें बताना न जानती
आंखें छिपाना न जानती
नाचा मन मोर
देख काली घटा चहूँ ओर
विरह वेदना भी न कम थी
आग बरसाती गर्मी
एक झलक शीतल की अनुपम थी
हवा भी करती अटखेली
शर्मा जाती मैं नवेली।।
— डॉ. सुरेश जांगडा