माँ
जब आप ब्याह घर आयी थी
चूल्हे में राख न पायी थी
जब आग जली , तब राख हुई
जब राख हुई , तब हम जन्मे
अंगुलियाँ दबी दाँतों तले
तुम निर्बल की प्राणप्रिया
तुम सबकी ही भौजाई थी
यह अंकुर आशातीत जना
यह वंशबेल अप्रत्याशित थी
जब दृष्टि प्रभू की पड़ती है
राई पर्वत बन जाती है
करना पड़ता है कर्म योग
वट वृक्ष स्वयं बन जाता है
जो कल अनाथ कहलाते थे
वे फिर सनाथ बन जाते हैं
जिस भूल से घर में धूल न थी
वह चूक न फिर होने पाये
तुम मात पिता बनकर रहना
हम सब हैं तुम्हरे ही जाये ॥
— देवेन्द्र पाल सिह बर्गली