गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

गुलाबों के निखर जाने का मौसम
तुम्हारे शहर में आने का मौसम

मुसलसल याद तुमको कर रहे हैं
है यानी दिल को बहलाने का मौसम

बसंती हो गईं सारी फ़ज़ाएँ
महकने और महकाने का मौसम

अहा ! चूनर मैं धानी ओढ़ नाचूँ
कि है रँगरेज़ के जाने का मौसम

दिखे सरसों ही सरसों खेत में बस
धरा से स्वर्ण उगलाने का मौसम

किया धरती ने भी श्रृंगार अपना
है शाखों के लचक जाने का मौसम

फ़ज़ाओं में मुहब्बत घुल गई है
बहकने का, है बहकाने का मौसम

हुई कुछ गुनगुनी सी धूप भी अब
रजाई के सिमट जाने का मौसम

सफ़र में मंज़िलों का सा मज़ा है
है ‘ममता’ ख़ुद से याराने का मौसम
— ममता लड़ीवाल

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