ग़ज़ल
करने वाला करे बुरा सा कुछ
इक भरोसा तो है खुदा सा कुछ
ढूंढ़ता हूं अभी उम्मीदे हैं
अपने भीतर कहीं बचा सा कुछ
देख बच बच के पांव रख लेना
है तो सड़कों पे रास्ता सा कुछ
झुर्रियां आ गई हैं माथे पर
शक्ल पर देखिये पता सा कुछ
हर तरफ हैं इमारतें ऊंची
देखने को कहां हरा सा कुछ
उम्र के साथ सब बदलते हैं
हां नज़र आयेगा नया सा कुछ
चंद लमहे नजर मिली उनसे
मेरे हाथों से भी गया सा कुछ
— डॉ. महेन्द्र अग्रवाल