कहानी

नई शुरुआत

अंशिका ने आज पहली बार खुद को आईने में मुस्कुराते हुए देखा। यह मुस्कान कई सालों के दर्द, संघर्ष और आत्म-संदेह से निकलकर आई थी। वह दिल्ली की इस नई जिंदगी में कदम रखते हुए अपने बीते कल को पीछे छोड़ने का फैसला कर चुकी थी।

तीन साल पहले… अंशिका ने पहली बार अपने माता-पिता के खिलाफ जाकर कोई फैसला लिया था। उसने घर छोड़ दिया, अपने सपनों की दुनिया बसाने के लिए। वह रोशन पर आंख मूंदकर भरोसा करती थी। वह उसकी मोहब्बत पर यकीन करती थी। जब रोशन ने कहा, “अगर तुम मुझसे प्यार करती हो, तो दुनिया की परवाह मत करो, मेरे साथ चलो।” तो उसने बिना एक पल सोचे अपना सबकुछ छोड़ दिया। उस वक्त उसे लगा था कि उसने अपनी खुशी चुन ली है।

शादी के शुरुआती दिन किसी सपने से कम नहीं थे। रोशन उसे हर वक्त अपनी बाहों में कैद रखना चाहता था। वह कहता, “तुम मेरी हो, सिर्फ मेरी।” अंशिका को यह जुनून भी प्यार ही लगता था। लेकिन धीरे-धीरे यह जुनून घुटन में बदलने लगा।

शादी के बाद की सच्चाई अंशिका के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं थी। रोशन का स्वभाव धीरे-धीरे बदलने लगा था। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा, शक, और फिर मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना—ये सब अंशिका की जिंदगी का हिस्सा बन चुके थे।

एक दिन जब उसके कॉलेज की एक पुरानी दोस्त ने उसे शादी की बधाई देने के लिए फोन किया, तो रोशन ने तुरंत उसका फोन छीन लिया। “कौन था? क्यों फोन किया उसने? तुम्हें शादी की बधाई देने का हक उसे किसने दिया?” अंशिका ने हंसकर समझाने की कोशिश की, लेकिन रोशन का चेहरा सख्त हो गया। उसने फोन छीनकर फेंक दिया।

फिर एक दिन अंशिका ने अपनी मां को फोन किया, बस उनका हालचाल लेने के लिए। रोशन पास ही बैठा था। फोन कटने के बाद कहने लगा “क्या कहा उन्होंने? मेरे बारे में कुछ पूछा?” जब अंशिका ने कहा कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है, तो रोशन ने ताना मारा, ” ओह! तो अब तुम्हें वहां वापस जाने का बहाना चाहिए, है ना? मत भूलो कि तुम मेरे लिए उन सब को छोड़ कर आई थी।”
अंशिका रोशन को दुखी व नाराज नहीं करना चाहती थी अतः वह अपनी मां के बीमार होने की सूचना पाकर भी मन को मार कर अपने आप को समझा लिया।
अब कुछ सालों बाद रोशन ने उसके कपड़ों पर भी ऐतराज जताना शुरू कर दिया। “ये ड्रेस ज्यादा टाइट है, ये रंग मुझसे पूछकर क्यों नहीं पहना तुमने, बाहर जाते वक्त हमेशा दुपट्टा लो।”

फिर धीरे-धीरे यह प्यार की कैद एक यातना बन गई। अब रोशन हर वक्त उसका मोबाइल चेक करता, कॉल लॉग, मैसेज, व्हाट्सऐप… “ये नंबर किसका है? कब बात हुई थी?” किसी अनजान नंबर से मिस्ड कॉल भी आ जाता तो हजार सवाल।

“बाहर जाना जरूरी है?”
“आज घर पर ही रहो।”
“मेरे साथ मत जाओ, लेकिन अकेले भी मत जाओ।”
“अगर मुझे पसंद नहीं तो किसी से बात क्यों करती हो?”

धीरे-धीरे वह किसी को फोन तक नहीं कर पाती, न घर जा सकती थी, न किसी से मिल सकती थी। यह कैद थी, औरत के नाम पर एक सजाई गई दीवारों वाली कैद।

एक दिन, जब अंशिका अपनी एक सहेली की शादी में जाना चाहती थी, तो रोशन ने साफ मना कर दिया। “तुम कहीं नहीं जाओगी।”
अंशिका ने हिम्मत की, “लेकिन क्यों?”
“क्योंकि मैं मना कर रहा हूं। तुम्हें मेरी बात माननी चाहिए।”

उस दिन पहली बार उसने रोशन की आंखों में प्यार नहीं, बल्कि हुकूमत देखी। जब उसने विरोध किया, तो पहली बार उसके गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा पड़ा। यह वही इंसान था, जिसके लिए उसने अपना सबकुछ छोड़ दिया था। अब वह समझ चुकी थी कि यह प्यार नहीं, उसकी कैद थी। वह हर दिन टूट रही थी, खुद से दूर हो रही थी।

लेकिन उस दिन, जब उसने खुद को आईने में देखा, तो उसे वहां एक कमजोर लड़की दिखी—जिसकी आंखों में डर, गाल पर चोट और होठों पर खामोशी थी। उसने ठान लिया। अब और नहीं। वह रात को ही बिना रोशन को बताए अपना सामान पैक कर चली गई। वह अपने मायके भी नहीं गई, क्योंकि वहां भी उसे ताने ही मिलते। सब यही कहते “अब कौन तुझे अपनाएगा?”

पर अब वह किसी की मोहताज नहीं थी। उसने अपनी डिग्री निकाली, एक दोस्त की मदद से नौकरी ढूंढी और नई जिंदगी शुरू की। आज पहली सैलरी मिलने के बाद उसने खुद के लिए एक गुलाब खरीदा—यह किसी और के दिए हुए प्यार का प्रतीक नहीं था, बल्कि उसकी खुद की जीत का निशान था।

आईने के सामने खड़ी खड़ी अंशिका पिछली यादों से बाहर निकली, उसने आईने में एक बार फिर अपना चेहरा देखा, मुस्कुराई और खुद से कहा— “अब मैं अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जिऊंगी।” इतना कह कर उसने वो पंक्तियां जो उसने कल रात खुद के लिए लिखी थी, मन ही मन दोहराने लगी-
“गुज़रे कल की जंजीरों को तोड़ आई हूं,
अब अपनी राहें खुद चुनने को तैयार खड़ी हूं।
डर के साए से दूर, उम्मीदों की रोशनी में,
नई शुरुआत के संग, खुद अपनी हमसफ़र बनी हूं।”

नई शुरुआत हमेशा आसान नहीं होती, लेकिन जब इंसान खुद को अपनाने का फैसला कर लेता है, तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती। अंशिका की नई जिंदगी अब उसकी खुद की थी—खुद के लिए, खुद के द्वारा और खुद के साथ।

— ओम प्रकाश ‘आनंद’

ओम प्रकाश 'आनंद'

मेरा पूरा नाम ओम प्रकाश राय है। मैं मूल रूप से बिहार के मधेपुरा जिले (गांव - गोठ बरदाहा) का रहने वाला हूं। मेरी जन्म तिथि 6 मार्च 1985 है। मैने ग्रेजुएशन (Zoology Hons. ) तक की पढाई की है जो साल 2008 में पूरी हुई। हिंदी साहित्य पढने और लिखने में रूचि शुरू से ही है। मैं अपने प्राइवेट नौकरी के दौरान मिले खाली समय का उपयोग लिखने व पढने में करता हूं। मेरी लिखी रचना पर आपके सुझाव, शिकायत और अन्य प्रतिक्रिया का स्वागत है। मेरी अन्य रचनाएं आप प्रतिलिपि पर भी पढ सकते है।

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