प्रकृति
हे प्रकृति!
कैसे वर्णन करुं तुम्हारे
विविध रुपों का,
आलबंन कभी उद्दीपन
आतुर कभी नव सृजन,
कोमलता ममत्व की
बनती सुखदायी,
विराट रुप विकराल
बन जाता दुःखदायी,
जीवन प्रदायिनी,
जीवन का तुम सार,
रौद्र, भयानक और विकराल
प्रचंड रुप तुम्हारे अपार,
हमको अपनी शरण में ले लो
क्यूँ देती जीवन को थाम
ममत्व रुप अपना बनाये रखो
तुम ही तो हो ये चारों धाम
— डॉ. सुरेश जांगडा