माया से नाता
मैंने बहुत सोचा
बहुत समझा
मन भरमाया …
मन के चंगुल में फंस
सुख -शांति को ग्रहण लगाया ।
बुद्धि विवेक को लगा जंग
भांति -भांति के डरों ने डराया/
समय व्यर्थ ही गंवाया
मानव जीवन का मूल्य समझ न पाया…
मन की सुनते -सुनते
बुद्धि हुई घन-चक्कर
भोगों ने मुझको भोगा
जब तक यह मेरी समझ में आया/
तब तक मन ने अपना कार्य निपटाया ।
लोभ, मोह, क्रोध, काम का व्यसनी
विस्तृत जाल में फंसा
सोच -समझ सब हुईं धूमिल
स्वजीवन नर्क बनाया
रे मन ! तूने भटक -भटक
माया से ही नाता जोड़ा…
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा