मात्र फ़िल्म नहीं है “छावा”

जब “छावा” देखने जा रही थी तब मन में यही भाव था कि मैं फिल्म देखने जा रही हूं।मगर जैसे -जैसे फिल्म आगे बढ़ती गयी, फिल्म देखने का भाव तिरोहित होता गया। भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में से एक पृष्ठ “हिंदवी स्वराज्य” के रूप में मेरी आंखों के सामने जीवंत हो उठा।लगने लगा मैं भारत के ऐतिहासिक तथ्य को जी रही हूं। इतिहास लेखन की भारतीय दृष्टि ऐसी होनी ही चाहिए जिससे हमारा स्वाभिमान बढ़े । छावा ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करती रही।
धर्म के नाम पर औरंगजेब ने हिंदू राजाओं पर ही नहीं हिंदुस्तान के आम जनों पर भी अमानवीय अत्याचार किए हैं,छावा इस सच को उजागर करती है। इतना ही नहीं हम हिन्दू अमानवीय अत्याचार सहकर भी अपनी सभ्यता-संस्कृति एवं अपने धर्म पर अडिग रहे हैं छावा इस तथ्य को भी दर्शाती है।छावा इस सच को भी उजागर करती है कि राष्ट्र विरोधियों ने जोधा-अकबर, पद्मावत और मुगले आज़म जैसी फिल्में परोसकर कैसे हमारे मन-मस्तिष्क में झूठे तथ्य भरे। हमें भ्रमित किया और हमारे स्वाभिमान को मारने का प्रयत्न किया।
“छावा” हमारी अन्तःचेतना में सोयी पीड़ित भावनाओं को जागृत कर गयी। यही कारण है कि जब फिल्म ख़त्म हुई, लगा पूरे हॉल को लकवा मार गया है। पांच मिनट तक तो कोई अपनी कुर्सी से उठा ही नहीं। क्या सभी ‘छावा’ के रूप में अपने ‘प्रेरणा पुरुष छत्रपति संभाजी महाराज’ की यातनापूर्ण मृत्यु के शोक में डूबे थे ? हां ऐसा ही था,मेरी ही नहीं,हमसभी की आंखें नम थी।
मैं समझती हूं ‘छावा’ राष्ट्र जागरण के प्रयास की एक कड़ी है। इससे पहले द कश्मीर फाइल,द केरला स्टोरी, वीर सावरकर,द ताशकंद फाइल, मणिकर्णिका जैसी अनेक फिल्मों ने भी कुछ ऐसा ही प्रभाव डाला है समाज पर। ऐसी फिल्मों के बनने और देखने का क्रम बना रहना चाहिए, तभी हिंदू समाज अपने विरूद्ध चल रहे ऐतिहासिक झूठ,वैचारिक भ्रम और घिनौने षड़यंत्र से बाहर आएगा।
— सुधा प्रजापति